August Kranti : बीएचयू के कुलपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने नहीं दी थी अंग्रेजी सेना को परिसर में आने की अनुमति

August Kranti बीएचयू परिसर में दाखिल होने के लिए अंग्रेज अफसरों ने कुलपति डा. राधाकृष्णन से अनुमति मांगी। उन्होंने साफ मना कर दिया। करीब चार घंटे तक फोर्स बीएचयू के सिंहद्वार पर बाहर ही खड़ी रही। अंग्रेजों ने हर यत्न किया लेकिन डा. राधाकृष्णन की वह दृढ़ता स्मरणीय बन गई।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Mon, 08 Aug 2022 04:22 PM (IST) Updated:Mon, 08 Aug 2022 04:22 PM (IST)
August Kranti : बीएचयू के कुलपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने नहीं दी थी अंग्रेजी सेना को परिसर में आने की अनुमति
बीएचयू के कुलपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने नहीं दी थी अंग्रेजी सेना को परिसर में आने की अनुमति

वाराणसी, अनुपम निशान्त। महामना पं. मदन मोहन मालवीय ने ज्ञान का जो दीप काशी हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में प्रदीप्त किया, उसके प्रकाश से विद्वान अध्येता ही तैयार नहीं हुए, तरुणों के ऐसे फौलादी सीने भी तैयार हुए जो आगे तनकर अंग्रेजों के बंदूकों की गोलियों की ताकत परखते थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बीएचयू क्रांतिकारी गतिविधियों का बड़ा केंद्र था। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, शचींद्रनाथ सान्याल जैसे क्रांतिकारियों की अनेक गोपनीय योजनाओं का जन्म काशी हिंदू विश्वविद्यालय की पावन भूमि पर ही हुआ।

आठ अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी ने जब ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति के लिए 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा दिया तो काशी की जनता भी अंग्रेजों से मुक्ति के लिए मचल पड़ी। गंगा की प्रवाहमान लहरों में मानो उफान आ गया। भारतीय जनमानस के विरोध को दबाने के लिए अंग्रेजों ने देशभर में नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू कर दीं। इसकी भनक लगते ही डा. संपूर्णानंद, त्रिभुवन सिंह, रघुनाथ सिंह और पं. कमलापति त्रिपाठी जैसे बड़े नेता भूमिगत होकर आंदोलन की रणनीति बनाने में जुट गए। सभी का मकसद था- ब्रिटिश हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकना।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय परिसर में भी बड़ी संख्या में गोपनीय ढंग से युवा स्वातंत्र्य वीरों की बैठकें होने लगीं। 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' के आह्वान पर युवा मन नए उल्लास और स्फूर्ति के साथ स्वातंत्र्य समर में अपनी आहुति देने कूद पड़ा। आठ अगस्त, 1942 का दिन समूची काशी के लिए यादगार और देश के लिए मिसाल बन गया। इस दिन क्रांतिकारी छात्रों की गिरफ्तारी के लिए ब्रिटिश फोर्स बीएचयू की ओर बढ़ी। तब डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन बीएचयू के कुलपति थे।

परिसर में दाखिल होने के लिए अंग्रेज अफसरों ने कुलपति डा. राधाकृष्णन से अनुमति मांगी। उन्होंने साफ मना कर दिया। करीब चार घंटे तक फोर्स बीएचयू के सिंहद्वार पर बाहर ही खड़ी रही। अंग्रेजों ने हर यत्न किया, लेकिन डा. राधाकृष्णन की वह दृढ़ता स्मरणीय बन गई। वह पूरी निडरता से अंत तक अपने निर्णय पर अडिग रहे और ब्रिटिश सेना चार घंटे तक खड़ी रहने के बाद लौट गई। इस घटना से अंग्रेज डा. राधाकृष्णन से नाराज हुए और विश्वविद्यालय का अनुदान रोक दिया।

बीएचयू में पत्रकारिता विभाग के प्राध्यापक डा. बाला लखेंद्र कहते हैं कि डा. राधाकृष्णन की निडरता-दृढ़ता का सत्परिणाम यह हुआ कि समूची जनता उत्साह से भर उठी। ब्रिटिश सेना का वापस लौटना उनकी कमजोरी जगजाहिर कर गया। तब बीएचयू के हल्थ अफसर हुआ करते थे डा. मंगला सिंह। उन्होंने भी इस लड़ाई में बड़ी भागीदारी निभाई। भारत छोड़ो आंदोलन में पूरे पूर्वांचल की जनता सहभागी बनी।

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