जज्बा हो तो बाधक नहीं विकलांगता, आप भी जानिए सरकारी तोहफे ने किस तरह बदल दी आलिम की जिंदगी

आलिम ने दुनिया में आंखें खोलीं तो उसके शरीर का धड़ से नीचे का हिस्सा यानी दोनों टांगें शिथिल थी।

By RashidEdited By: Publish:Mon, 10 Dec 2018 02:43 AM (IST) Updated:Mon, 10 Dec 2018 10:15 AM (IST)
जज्बा हो तो बाधक नहीं विकलांगता, आप भी जानिए सरकारी तोहफे ने किस तरह बदल दी आलिम की जिंदगी
जज्बा हो तो बाधक नहीं विकलांगता, आप भी जानिए सरकारी तोहफे ने किस तरह बदल दी आलिम की जिंदगी

मुरादाबाद । जन्म से दोनों पैरों से दिव्यांग के एक सरकारी तोहफे ने ङ्क्षजदगी के मायने ही बदल दिए। ट्राईसाइकिल मिलने पर पंख लग गए। सिलाई सीखने से जीवन को नई दिशा मिल गई।

हौसले से लिखी सफलता की इबारत

अमरोहा के हसनपुर तहसील के गांव गंगवार निवासी अशरफ अली के 25 वर्षीय बेटे आलिम की ङ्क्षजदगी कुछ ऐसा ही नजरिया पेश कर रही है। आलिम ने दुनिया में आंखें खोलीं तो उसके शरीर का धड़ से नीचे का हिस्सा यानी दोनों टांगें शिथिल थी। इसी वजह से वह दिव्यांग की श्रेणी में आ गया। परिवार के दूसरे बच्चे इधर उधर भागते दौड़ते फिरते थे लेकिन वह चलने फिरने से मजबूर था।

आठ भाई-बहनों में सबसे बडे हैं आलिम

गरीब परिवार में जन्मे आलिम अपने आठ भाई बहनों में सबसे बड़े हैं। पिता अशरफ अली भैंसा बुग्गी से किराया कर परिवार के लिए दो जून की रोटी का प्रबंध करते हैं। आलिम के दिव्यांग होने पर परिजन ङ्क्षचतित थे, कि जीवन भर उनकी देखभाल कौन करेगा और परवरिश कैसे होगी। 16 वर्ष की उम्र तक आलिम को घर की चारदीवारी ही संसार नजर आती थी। वह पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर थे।

नौ साल पहले दिया गया था उपकरण

9 वर्ष पूर्व प्रदेश सरकार की ओर से दिव्यांगों के लिए उपकरण वितरण शिविर का आयोजन करनपुर माफी गांव में हुआ था। सूचना पर पिता अशरफ अली बेटे को कंधे पर बैठाकर वहां पहुंच गए। धड़ से नीचे पैरों की स्थिति देखकर अधिकारियों का न केवल दिल पसीजा बल्कि सारी कार्रवाई तत्काल पूर्ण कर सबसे पहले उसे ट्राई साइकिल पर बैठा दिया। यह दिन आलम के जीवन में किसी बड़े उत्सव से कम नहीं था। ट्राई साइकिल क्या मिली उनके पंख ही लग गए। नई ट्राई साइकिल पर बैठकर उसकी खुशियों का ठिकाना न रहा। ट्राई साइकिल के सहारे उन्होंने गांव में रियाजुददीन टेलर की दुकान पर जाकर हाथ से सिलाई करके कपड़े सीने का हुनर बहुत जल्दी सीखकर अपनी दुकान कर ली। सिलाई करके न केवल उन्होंने अपना खर्च चलाया बल्कि अपनी दो बहनों की शादी के खर्च में पिता का हाथ भी बंटाया। मौजूदा समय में वह बुरावली गांव में सिलाई की दुकान चलाते हैं। ग्रामीण उसके हुनर व जज्बे को सलाम करते हैं।

कंधे पर ले जाकर कराई कक्षा 7 तक की पढ़ाई

दिव्यांग आलिम अपने बचपन की दास्तां सुनाते हुए बताते है कि उनके बुजुर्ग दादा अब्दुल मजीद ने गांव के इंटर कालेज में उसे कंधे पर ले जाकर कक्षा 7 तक की शिक्षा ग्रहण कराई थी। पिता अशरफ अली बुग्गी लेकर काम करने चले जाते थे तो बुजुर्ग दादा उन्हें कंधे पर बैठाकर स्कूल पहुंचाने व लेकर आने का काम करते थे। बुजुर्ग दादा के कंधे पर बैठकर उनकी सांस फूलते शरीर को देखकर बहुत दुख होता था परंतु सामने ईश्वर की दी हुई मजबूरी थी। आज उनके दादा दुनिया में नहीं है लेकिन वह दादा के दुलार व पढ़ाई में दादा द्वारा की गई कठिन तपस्या को वह कभी नहीं भूल पाएंगे।

दूसरों को भी बना रहा आत्मनिर्भर

दिव्यांग आलिम अपने हुनर के बूते न केवल अपना घर चला रहा है बल्कि उसने अपने हुनर की रोशनी से दूसरों के घर भी रोशन कर दिए हैं। वह अपनी दुकान पर गांव के आधा दर्जन युवकों को भी सिलाई सिखाकर उन्हें आत्मनिर्भर बना चुके हैं। 

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