प्रकृति संरक्षण का संदेश दिया था भगवान श्रीकृष्ण ने

भारतीय तीज-त्यौहारों के पीछे धार्मिक मान्यता के साथ ही वैज्ञानिक कारण भी छिपे हैं। अविछिन्न रूप से अनादिकाल से चली आ रही भारतीय परंपरा एवं संस्कृति में प्रकृति की महत्ता को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन का की भावना अंर्तिनहित है। इसी तरह नदियों, वनस्पतियों, पर्वतों एवं पशु-पक्षियों के संरक्षण का संदेश देता है गोवर्धन पूजा का पर्व। सर्वप्रथम भगवान कृष्ण ने ब्रजमंडल में गोवर्धन पर्वत की पूजा कर प्रकृति के संरक्षण शंखनाद किया था।

By JagranEdited By: Publish:Wed, 07 Nov 2018 05:45 PM (IST) Updated:Wed, 07 Nov 2018 05:45 PM (IST)
प्रकृति संरक्षण का संदेश दिया था भगवान श्रीकृष्ण ने
प्रकृति संरक्षण का संदेश दिया था भगवान श्रीकृष्ण ने

जागरण संवाददाता, मऊ : भारतीय तीज-त्यौहारों के पीछे धार्मिक मान्यता के साथ ही वैज्ञानिक कारण भी छिपे हैं। अविछिन्न रूप से अनादिकाल से चली आ रही भारतीय परंपरा एवं संस्कृति में प्रकृति की महत्ता को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन का की भावना अंर्तिनहित है। इसी तरह नदियों, वनस्पतियों, पर्वतों एवं पशु-पक्षियों के संरक्षण का संदेश देता है गोवर्धन पूजा का पर्व। सर्वप्रथम भगवान कृष्ण ने ब्रजमंडल में गोवर्धन पर्वत की पूजा कर प्रकृति के संरक्षण शंखनाद किया था।

भागवत पुराण के अनुसार बालक के रूप में ब्रजमंडल की गलियों में खेल रहे नटवरलाल कृष्ण ने देखा कि समस्त ग्वाले दूध छकड़ों में लादे मथुरा ले जा रहे हैं। बचे दूध से विशेष व्यंजन बन रहा है। इस दिन न तो बछड़ों को न शिशुओं को दूध दिया गया। कृष्ण को जब देवराज इंद्र के पूजन की बात पता लगी तो वह जिज्ञासु हो उठे। मां यशोदा ने कहा कि इंद्रदेव कुपित हो गए तो अतिवृष्टि या अनावृष्टि होगी। उन्होंने भगवान ने इंद्र का दर्प चूर करने की ठानी। ब्रजवासियों को उन्होंने प्रकृति की महत्ता बताते हुए इसकी पूजा करने को कहा। बताया कि वर्षा का होना, न होना हमारे पहाड़ों, नदियों, जलस्त्रोतों, सागरों और प्रकृति पर निर्भर करता है। ब्रजवासी जैसे ही गोवर्धन पूजन करने लगे इंद्र कुपित हो उठे। संपूर्ण ब्रज प्रदेश में आवर्तक मेघों ने जमकर बरसना शुरू कर दिया। अनवरत वृष्टि से त्राहिमाम की स्थिति देख भगवान कृष्ण ने सभी पुरवासियों को पर्वत की तलहटी में भेजा। कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर छत्र का रूप दिया। जिसके तले समस्त पुरवासी एवं पशु-पक्षी सुरक्षित हो गए। देवेंद्र का दर्प चूर हो गया। तभी से इस पौराणिक घटना की याद में प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजन की परंपरा प्रारंभ हुई। लोकरीतियों के अनुसार इस पूजन परंपरा में परिवर्तन भी आए हैं। कहीं प्रतिपदा तो कहीं द्वितीया को गोवर्धन पूजन किया जाता है पर अंतत: प्रकृति एवं वनस्पति संवर्धन एवं संरक्षण का ही निष्पादन होता है।

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