ट्रॉफी और नकदी पर भरी दोपहरी में लड़ते थे पेच

जागरण संवाददाता, मथुरा: दशकों पूर्व तक अपनी पतंगबाजी के दम पर विभिन्न शहरों में अपना लोहा मनवाने वाल

By JagranEdited By: Publish:Sat, 23 Jun 2018 12:25 AM (IST) Updated:Sat, 23 Jun 2018 12:25 AM (IST)
ट्रॉफी और नकदी पर भरी दोपहरी में लड़ते थे पेच
ट्रॉफी और नकदी पर भरी दोपहरी में लड़ते थे पेच

जागरण संवाददाता, मथुरा: दशकों पूर्व तक अपनी पतंगबाजी के दम पर विभिन्न शहरों में अपना लोहा मनवाने वाले मथुरा के पतंगबाज अब गुम से हो गए हैं। इसके प्रति धीरे-धीरे लोगों का रूझान कम हुआ तो पतंगबाजों ने भी इस कला से किनारा कर लिया। वर्तमान में सिर्फ इक्का-दुक्का पतंगबाज ही ऐसे हैं जो अपने समय के मशहूर पतंगबाज रहे। आज भी इस कला में जीती गई ट्रॉफियों को देख उनकी आंखें भर आती हैं।

करीब दो दशक पूर्व पतंगबाजी का शौक लोगों के सिर चढ़कर बोला करता था। दशहरा ही नहीं आम दिनों में शहर में खूब पतंगबाजी देखने को मिलती थी। यमुना किनारे भरी दोपहरी में पतंगों के पेच लड़ाने का शौक लोगों में अलग ही देखा जाता था। अंतापाड़ा निवासी 65 वर्षीय पूर्व पतंगबाज ओमप्रकाश बताते हैं कि उन्होंने मात्र 17 वर्ष की आयु से पतंगबाजी का हुनर लेना शुरू कर दिया। उस्ताद बंगाली चक्रवर्ती व लल्लन गुरु ने उन्हें यह कला सिखाई। पतंगबाज श्यामसुंदर ने बताया कि छोटे टूर्नामेंट धनराशि पर जबकि बड़े टूर्नामेंट हमेशा ट्रॉफियों के लिए होते थे। अब तो सिर्फ कमाई के उद्देश्य से लोग पेच लड़ाते हैं। उस समय श्याम बाबू, सतीश व विजय को मिलाकर उनकी चार सदस्यीय टीम हुआ करती थी। जब कोई पतंगबाज अपनी पतंग कटवा बैठता था तो लक गलत समझकर अगले पतंगबाज को मौका दिया जाता था। वह अलीगढ़ में पतंगबाजी के छह, वृंदावन में आठ तथा हाथरस में तीन मुकाबले खेल चुके हैं। नबाव शाह और लालू की दुकान से होती थी खरीदारी

---होली गेट स्थित नबाव शाह और जनरल गंज स्थित लालू की दुकान से ही पतंग व मांझे की खरीदारी की जाती थी। दिलदार और बरेली का जंजीर मांझा अधिकांश पेच लड़ाने के लिए पतंगबाज लेते रहे। उन दिनों में इसकी कीमत 50 रुपये प्रति रील रही। ये रहे पतंगबाज:

दो दशक पूर्व जनरल गंज निवासी लल्लूजी, हाकिम यादव, सदर निवासी मधुआ, जनरल गंज निवासी सोनपाल, अंतापाड़ा निवासी तेजा, अशोक, अन्ना, वृंदावन निवासी धर्मेश आदि ही मुख्य पतंगबाज रहे हैं। ऐसे होता था निर्णय:

पतंगबाजी के समय दोनों ओर एक-एक अम्पायर की नियुक्ति होती थी। दोनों के ही हाथों में हरी व लाल झाड़ियां रहतीं, जब तक दोनों टीमों की पतंगें समान बराबरी पर नहीं आ जाती तब तक हरी झंडी दिखाई जाती थी। बराबरी आने पर झंडियों को हटाने के बाद पेच प्रारम्भ हुआ करते। जिस ओर से पतंग कटती वहां का अम्पायर दूसरी ओर लाल झंडी दिखाकर पतंग कटने का इशारा देता था। कुछ टूर्नामेंट में यह प्रक्रिया पर्चियों से भी कराई जाती थी। अधिकांश मुकाबले 21 पतंगों या 11 पतंगों के हुआ करते थे जिनमें अधिकांश काटने वाले ही विजेता बनता था। पेच के दौरान फटी या टूटी पतंग को कटी पतंग मान लिया जाता।

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