विश्व शरणार्थी दिवस: देश ही नहीं भावनाओं का भी विभाजन

राजधानी में रहने वाले सिंधी और पंजाबी शरणार्थियों ने बताई बंटवारे की कहानी। नहीं भूल पाए बंटवारे का दर्द, प्यार से रहने वालों के दिलों में भी भर गई थी नफरत।

By JagranEdited By: Publish:Wed, 20 Jun 2018 10:45 AM (IST) Updated:Wed, 20 Jun 2018 11:27 AM (IST)
विश्व शरणार्थी दिवस: देश ही नहीं भावनाओं का भी विभाजन
विश्व शरणार्थी दिवस: देश ही नहीं भावनाओं का भी विभाजन

लखनऊ [राफिया नाज]। हिंदुस्तान और पाकिस्तान बंटवारे के बाद राजधानी में जान बचाकर आए लोगों के दिलों में आज भी बंटवारे की यादें ताजा हैं। उन्हें वह दिन नहीं भूलता जब हिंदुस्तान से जाने वाली ट्रेनें मुसलमानों के खून से सनी हुईं लाशों और पाकिस्तान से आने वाली ट्रेनें ¨हदूओं की लाशों से पटी हुई थीं। डर, भय, दहशत और असुरक्षा का ऐसा माहौल, जिसमें अगले पल क्या होगा, कोई नहीं जानता था। बैलगाड़ी, ट्रेन, बस, पैदल जिसके हाथ में जो आया वो उसे लेकर परिवार के साथ सुरक्षित हिंदुस्तान पहुंचना चाहता था। कोई आगे था तो कोई पीछे। किसी को अपनों की कोई खबर नहीं मिल रही थी। वो मंजर याद करके आज भी राजधानी में रहने वाले पंजाबी और सिंधी शरणार्थी सिहर उठते हैं। कहते हैं, लोग बुरे नहीं थे और न ही कभी कोई भेदभाव था, लेकिन एक बंटवारा ही था जिसने सारी फिजा में जहर घोल दिया था। विश्व शरणार्थी दिवस पर राजधानी में रह रहे शरणार्थी परिवारों ने साझा किया अपना दर्द। दैनिक जागरण संवाददाता की रिपोर्ट- गाव के प्रधान ने खुद पार करवाया था बार्डर:

सही सही कहा जाता है कि बंटवारा सिर्फ एक देश का नहीं होता, बल्कि भावनाओं का होता है। 1947 के बंटवारे में पाकिस्तान के गुजरावाला जिले से भारत आए राम शरण अरोड़ा ने बताया कि मैं उस वक्त छह साल का था। हम चार लोग रहते थे, हमारी कालोनी मुस्लिम थी। बंटवारे की तैयारी हो रही थी। माहौल में अजीब सी घुटन हो रही थी। जैसे ही बंटवारे की खबर मिली और हमारी कालोनी पर हमला हुआ। हमने अपनी पड़ोसी बीबी रसूल बाई के यहा शरण ली। वहा हम करीब सप्ताह भर छिपे रहे। इसके बाद गाव के प्रधान चौधरी हुसैन शाह ने हमें खुद बैलगाड़ी से सुरक्षित हंिदूुस्तान बार्डर तक पहुंचाया। हमने अपनी सारी जमीन-जायदाद पड़ोसियों को सौंप दी थी। जल्दबाजी में सारे जेवर भी वहीं छोड़ दिए।

जीते-जागते गवाह हैं चंद्रजीत लाल बजाज:

पाकिस्तान के सरदोदा शहर में रहने वाले चंद्रजीत 18 साल के थे जब बंटवारा हुआ। उन्होंने बताया कि माहौल इतना खराब था कि लोगों को मारकर नहर में बॉडी फेंक दी जाती थी। पिताजी को मिलाकर हम पाच लोग थे। सरगोजा के रिफ्यूजी कैंप में हम लोग कुछ दिन रहे। वहा एक काग्रेसी नेता लैना सिंह ने मुडो जीप में बैठाकर बार्डर पार करवाया। एक महीने बाद मेरा परिवार लखनऊ आया, जब तक सब लोग नहीं आये मुडो बहुत ज्यादा परेशानी हुई। हमेशा दिल लगा रहता था, फिर पाकिस्तान से आने-जाने वाले लोगों से खैरियत मिलती थी। घर-बार सब कुछ छोड़ने का अफसोस आज भी है, लेकिन शुक्त्र इस बात का है कि हम सभी लोग सुरक्षित अपने रिश्तेदारों के पास आ गए।

फिजा में ही नहीं पानी में भी घोला गया था जहर:

जब दंगे होते हैं तो लोग आपसी भाईचारा भूल जाते हैं। तब फिजाओं में ही नहीं बल्कि पानी में भी जहर घोल दिया जाता है। मुंशीराम ने बताया कि उनके पिता हंसराज 40 वर्ष के थे, जब वो पाकिस्तान के गुजरात जिले से भागकर आये थे। मैं उस वक्त महज छह माह का था। पिताजी बताते थे कि दोनों तरफ से कटी हुईं लाशों से भरी हुई ट्रेनें जातीं थीं। हर पल दहशत में गुजरता था। पिताजी पाच बच्चों के साथ लखनऊ आए थे। उस समय उन्होंने नक्खास में एक रुपये में डेढ़ गज के हिसाब से कपड़े बेचे। 1967 में हमें रिफ्यूजी मार्केट दी गई, यहा हम लोग टिन शेड और लालटेन में दुकानें लगाते थे। डर के कारण नहीं खोली ट्रेन की खिड़की:

अनिल मनचंदा ने बताया कि उनके पिता मुकंद लाल मनचंदा डेरा इस्माइल खा में रहते थे। वो एक प्राइवेट इंश्योरेंस कंपनी में काम करते थे। माहौल बिगड़ने के समय उन्हें कंपनी ने प्लेन से हंिदूुस्तान पहुंचाया। वहीं परिवार के अन्य लोग ट्रेन में बंद होकर आये थे। उन्होंने बताया कि माहौल ऐसा था कि ट्रेन में पानी तक नहीं मिलता था। भूखे प्यासे सब लोग डर से खिड़किया बंद करके आते थे। डर लगता था कि अगर खिड़की खुली तो मार दिए जाएंगे। घर में सोने की ढेरी थी, तीन-तीन पुश्तैनी घर थे सब छोड़कर आ गये। आज तो बस वो बंटवारे की भूली-बिसरी यादें ही बची हैं। डाक वाहन में छिपकर पार की थी सीमा:

जगजीत सिंह ने बताया कि उनके पिता गुरदीप सिंह महज 14 साल के थे जब विभाजन हुआ। पाकिस्तान के फैसलाबाद में घर था। दादा जी और परिवार के चार लोग पहले ट्रेन से जालंधर पहुंच गए थे। पिताजी और चाचा बाद में लखनऊ आने वाले डाक वाहन में छिपकर आये थे। सीट के नीचे बैठकर बार्डर पार किया। पाकिस्तान में अपना पुश्तैनी मकान छोड़ दिया। बाद में 1952 में अपना मकान खरीदा।

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