World Radio Day: पहली मुहब्बत को आज भी दिल से लगाए हैं पद्मश्री डॉ. योगेश प्रवीन, जिंदगी और घर की जीनत है रेडियो

World Radio Day डॉ. प्रवीन आज भी अपनी पहली मुहब्बत को दिल से लगाए हुए हैं। अपने प्यार से मिलाते हुए पद्मश्री जन्म के साथ ही उससे जुड़ा रिश्ता बताने लगते हैं। अपने घर आने से लेकर जिंदगी की जीनत बन जाने तक का सिलसिला शब्द पाने लगता है।

By Anurag GuptaEdited By: Publish:Sat, 13 Feb 2021 12:57 PM (IST) Updated:Sat, 13 Feb 2021 12:57 PM (IST)
World Radio Day: पहली मुहब्बत को आज भी दिल से लगाए हैं पद्मश्री डॉ. योगेश प्रवीन, जिंदगी और घर की जीनत है रेडियो
रेडियो पर शहनाई की मधुर धुन और भजन के साथ सुबह, सदाबहार गीत और गजल के साथ होती रात।

लखनऊ, [दुर्गा शर्मा]। यूं तो पद्मश्री डॉ. योगेश प्रवीन के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं, पर क्या आप जानते हैं उनके पहले प्यार के बारे में...। नहीं, तो चलिए पांडेयगंज के गौसनगर की उस तंग गली में जहां डॉ. प्रवीन आज भी अपनी पहली मुहब्बत को दिल से लगाए हुए हैं। अपने प्यार से मिलाते हुए पद्मश्री जन्म के साथ ही उससे जुड़ा रिश्ता बताने लगते हैं। युवावस्था में अपने घर आने से लेकर जिंदगी की जीनत बन जाने तक का सिलसिला शब्द पाने लगता है। इसके साथ ही अपनी मुहब्बत को प्यार भरा स्पर्श देकर वह चैनल ट्यून करने लग जाते हैं।

शहनाई की मधुर धुन गूंज उठती है। हर रोज अपनी मुहब्बत के साथ पद्मश्री की सुबह यूं ही गुलजार होती है। अपने प्यार के संग चहलकदमी करते हुए उसकी मीठी स्वर लहरियों में मगन पद्मश्री कुछ पल के लिए उसमें पूरा डूब जाते हैं। फिर ध्यान आते ही बातों का सिलसिला दोबारा शुरू हो जाता है। रेडियो के प्रति अपनी दीवानगी की कहानी बयां करते हुए उनका चेहरा चमक जाता है। वह बताते हैं, रेडियो पर शहनाई की मधुर धुन और भजन के साथ सुबह होती है, वहीं सदाबहार गीत और गजल के साथ रात। अपने और अपने प्यार के जन्म के बारे में भी उत्साह से बताते हैं, आकाशवाणी केंद्र लखनऊ ने 1938 में आंखें खोली थीं और मेरा जन्म वर्ष भी वही है। पिता जी बड़े सादगी पसंद इंसान थे। उन्हें रेडियो में कमेंट्री सुनने का बहुत शौक था। तब हमारे घर में रेडियो नहीं हुआ करता था, पिताजी कमेंट्री सुनने पड़ोस के घर जाते थे। 1950 में हमारे घर पहला ट्रांजिस्टर सेट आया।

पिताजी कमेंट्री सुनते और मैं दिन में दो बार आने वाले फिल्मी गानों का इंतजार करता। रेडियो समाचार का भी खास आकर्षण होता। अपनी मुहब्बत को आला दर्जा देते हुए वह कहते हैं, रेडियो की अपनी एक प्रतिष्ठा है, जिससे यह कभी पंचायती, सामान या पब्लिक प्रॉपर्टी नहीं बना। मुझे इसका यह चरित्र बहुत प्रभावित करता है। रेडियो न केवल घर का सन्नाटा तोड़ता है, अपने प्रेमी का सच्चा साथी भी प्रमाणित होता है। वास्तविक रूप में जो लोग सादगी पसंद, विकिरण विरोधी और पंचायती स्वभाव के नहीं होते, वह रेडियो के ही आशिक होते हैं। प्राइमरी चैनल हो या विविध भारती आकाशवाणी पर समाचार सुनना, विचार विमर्श, शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत अथवा फिल्मी गाने सभी दिल को बड़ा चैन देते। यहां इंसान की अपनी कल्पनाशीलता भी अपना कमाल दिखाती है, जबकि अन्य संसाधनों में हमें दूसरों के नजरिए पर खुद को राजी करना होता है।

...रेडियो नहीं था तो लौट आए

डॉ. प्रवीन 1985 का वाकया बताते हैं। वजीरहसन रोड पर एक संबंधी ने कार्यक्रम के सिलसिले में बुलाया था। उन्होंने वहीं रुकने के लिए आग्रह किया, योगेश जी ने पूछा, आपके यहां रेडियो है? जवाब मिला, नहीं। तब योगेश जी बोले, रेडियो नहीं है, तो हम नहीं रूक सकते और वहां से लौट आए।

जब 12 साल की उम्र में पहली बार गए आकाशवाणी

हमारे मोहल्ले में उम्दा ड्रामा आर्टिस्ट राधे बिहारी लाल, गणेश बिहारी और विद्वान कवि कृष्ण बिहारी नूर रहते थे। इनका आकाशवाणी से जुड़ाव था। तब आकाशवाणी में बाल संघ का कार्ड बनता था। 12 साल की उम्र में उनके घर के बच्चों के साथ बाल संघ के कार्ड पर मुझे भी पहली बार आकाशवाणी जाने का मौका मिला। हमारे एक संबंधी थे, उनका निजी तांगा था, उसी पर बैठकर हम आकाशवाणी गए। बच्चों के बीच आकाशवाणी का दूसरा आकर्षण, वहां का गुलाब जामुन और समोसा होता।

रेडियो ने दिलाई शोहरत

1972 में 'गोमती' नाम का डांस ड्रामा, फिर 'हजरत महल' और 'बादशाह बेगम' पर भी नाटक लिखा। 'महानंदा' नाटक ने विशेष प्रसिद्धि दिलाई। महानंदा उज्जैन की एक वैश्या का नाम था, जो भगवान शिव की भक्त थी। डॉ. प्रवीन इस रेडियो नाटक को लिखने से पहले की कहानी बताते है, जब साहिर लुधियानवी नहीं रहे, तब दूरदर्शन में जो गीतकार और कवि आमंत्रित किए गए, उनमें आकाशवाणी के डायरेक्टर भी थे। वहां सबने साहिर के तेवर बयां किए। हमने कहा, वह कितना एहतियात बरतने वाले थे कि फिल्म चित्रलेखा के गाने लिखे तो उर्दू का एक भी शब्द इस्तेमाल नहीं हुआ। फिल्म साधना में उन्होंने गाने लिखे, जो एक वैश्या की कहानी थी। उसमें एक भजन था,

हम मूरख जो काम बिगाड़ें, राम वो काज संवारें

वो महानंदा हों कि अहिल्या, सबको पार उतारें...।

अहिल्या को तो सब जानते हैं, पर महानंदा को कोई नहीं जानता। बस इसी के बाद आकाशवाणी निदेशक ने ऑफर दिया कि, महानंदा सबकी जानकारी में आनी चाहिए और आप इसे लिखेंगे। तब मैंने एक घंटे का ड्रामा महानंदा लिखा, जो खूब मकबूल हुआ। 

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