रिपोर्ट: लखनऊ में धंस सकती है जमीन!
1980 के बाद तालाब और पोखरों पर शहर बन गए, जिसके कारण भूमिगत जल का स्तर नीचे जाने लगा।
लखनऊ[अजय श्रीवास्तव]। ताजा सरकारी रिपोर्ट लखनऊ की भयावह तस्वीर पेश कर रही है। कुछ दिन पहले जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि लखनऊ में भूजल का दोहन इतना बढ़ गया है कि भूमि की सतह के नीचे के प्रथम एक्वाफायर लेयर समाप्त होने की सीमा में पहुंच रही है। इसी तरह भूजल का दोहन होता रहा और रिचार्ज करने के लिए नई तकनीक नहीं खोजी गई तो पहली एक्वाफायर लेयर समाप्त होते ही लखनऊ की भूमि का धंसना शुरू हो जाएगी, क्योंकि पहली एक्वाफायर लेयर समाप्त होने के बाद बीच के एक्वाफायर लेयर के ऊपर भूमि की सतह नीचे खिसकने लगेगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि लखनऊ शहर में ही बारिश के दौरान पानी सड़कों पर जमा रहता है। घरों में घुस जाता है। सड़कों पर घुटनों तक पानी भरा रहता है। शहर एक रात की बारिश से थम जाता है। शहरवासी अपने को बाढ़ से घिरा पाते हैं। इस पानी को जिन तालाबों में एकत्र होना चाहिए था, वहा अब कालोनिया और माल बन गए हैं, जो तालाब खाली है, उनकी खोदाई करानी होगी।
पटते तालाब और कुएं और भूजल रीचार्ज न होने से हर साल लखनऊ के शहरी क्षेत्र में 60 से 70 सेंटीमीटर भूजल का स्तर गिर रहा है। अधिक हॉर्सपॉवर के पंप लगाकर धरती से पानी निकालकर टैंकरों में बेचा जा रहा है। पानी का ऐसा ही उपयोग बोतल बंद पानी और जार के लिए भी हो रहा है।
यहा अधिक गिरावट :
गोमतीनगर, कैंट, गुलिस्ता कॉलोनी, नरही, विकासनगर, महानगर, इंदिरानगर, निरालानगर। नगर निगम भूजल बचाने की बना रहा है योजना:
नगर आयुक्त डॉ.इंद्रमणि त्रिपाठी का कहना है कि चार दिन पूर्व ही नगर विकास विभाग से उन्हें लखनऊ में गिरते भूजल से जुड़ी रिपोर्ट मिली है। भूजल को बढ़ाने के लिए नगर निगम बड़ी कार्ययोजना बना रहा है। तालाबों को खाली कराने के साथ ही खाली पड़े तालाबों को खोदा जाएगा, जिससे उसका कैचमेंट एरिया बढ़ जाए। इसी के तरह जलभराव वाले इलाकों में जल संचयन की योजना बनाई जा रही है। यह ध्यान रखा जाएगा कि शोधन के बाद ही पानी धरती में जाए। रिपोर्ट में सिंचाई व कृषि विभाग जिम्मेदार:
रिपोर्ट में गिरते जलस्तर को लेकर सिंचाई और कृषि विभाग को उत्तरदायी माना गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि नासा के 2003 से 2013 तक के अध्ययन पर आधारित आकड़ों के अनुसार उत्तर भारत में भूजल तेजी से (19564 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की दर से) गिर रहा है। मैट रोडेल के नेतृत्व में हुए इस अध्ययन के अनुसार उत्तरी भारत कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए सिंचाई पर निर्भर हो गया है। वर्ष 1960 के दशक में जमीनी पानी से सिंचाई करते थे, जो गति तेज हुई है। आबादी कम थी तो जल संचयन के लिए निचली भूमि संरक्षित थी। बारिश का पानी धरती की गगरी को भर देता था। अब 42 फीसद सिंचाई जमीन के पानी से की जा रही है, लेकिन जमीन में जाने वाले पानी का रास्ता बंद हो गया है। इस कारण 1980 के बाद से भूमिगत जल का स्तर नीचे जाने लगा था। रिपोर्ट में कहा गया कि ज्यादा पानी पीने वाली फसलों की सिंचाई के लिए नलकूप खोदे जा रहे है।