शहरनामा शहरनामा

बिगड़ रही सेहत फिर भी आल इज वेल भइया सेहत वाले साहब तो सफेद झूठ पर काला पर्दा डाल रहे हैं। पूर

By Edited By: Publish:Sat, 24 Sep 2016 04:46 PM (IST) Updated:Sat, 24 Sep 2016 04:46 PM (IST)
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बिगड़ रही सेहत फिर भी आल इज वेल

भइया सेहत वाले साहब तो सफेद झूठ पर काला पर्दा डाल रहे हैं। पूरे जिले में बीमारी फैली है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों की जान जा रही है। बुखार ने तो हाहाकार मचा रखा है लेकिन आंखों पर काला चश्मा लगाए बैठे साहब को कुछ दिख ही नहीं रहा। अस्पतालों में न तो दवा है और न ही डाक्टर। फिर भी आल इज वेल बोला जा रहा है। विभाग के बड़े साहब की चाल ने तो विभाग को ही बेहाल कर दिया है। दवा खरीद में इन दिनों कम कृपा है तो दवा खरीद पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा। नीली पीली गोली के नाम पर मरीजों को दवा के नाम पर दुआ दी जा रही है। साहब का इस तरफ ध्यान भले न हो लेकिन बच्चों को आशीर्वाद देने के लिए वाहन का डिब्बा खोला ही नहीं जा रहा। दूसरी तरफ अस्पतालों में सफाई भले ही न हो लेकिन और सब साफ हो गया है। एक दो नहीं साहब के जलवे की चारों तरफ चर्चा है। कोई कुछ कह रहा तो कोई कुछ, साहब भी जानते हैं कि उन्हें क्या क्या बनाया जा रहा, लेकिन चुपचाप चश्मा लगाए बैठे तमाशा देख रहे हैं। वैसे इस नागरिक से कोई खास मतलब नहीं है पर विभाग से संबंध रखता है। अब जिससे पूछो कि भइया का हाल हैं, सब एक ही बात अरे ददुआ ऐसो ता कबहू नाई भओ, कहते हैं। बदहाली देखी नहीं गई तो एक दिन आम आदमी के अधिकार से इस नागरिक ने भी साहब से पूछ लिया कि साहब कुछ रहम करो, लेकिन साहब ठहरे मझे खिलाड़ी बोले आप अपना काम करो हम जो कर रहे ठीक है। अब साहब आप तो ठीक कर रहे पर इसमें हमारी गलती क्या है।

सरकार पर वार, साहब लाचार

भइया साहब की चौखट पर सरकार की छीछालेदर मची हुई है। चूड़ियों की खनक के बीच नारेबाजी और सरकार को गालियां दी जा रही है। आंगन की नारी तो खुलकर सामने आ गई, विद्यालयों का चूल्हा छोड़ सास मैदान में हैं तो माताओं की सेवा छोड़कर बहुएं भी भड़ास निकाल रही है। चारों तरफ हाय हाय मची हुई है। सुबह से शाम तक बस एक ही बात कि सरकार नहीं चलेगी नहीं चलेगी। दूसरी तरफ कोई बेलन तो कोई चिमटा लेकर गालियां दे रहा है। भइया यह नागरिक भी पुराना है पर ऐसा पहली बार हो रहा है जब दौड़ा दौड़ाकर गालियां दी जा रही हैं। ऐसी कोई गाली नहीं बची होगी जोकि दी न जा रही हो। आखिर साहब भी क्या करें, कमरे में अंदर बैठे गालियां सुन रहे हैं। मजबूर हैं, उन्हें भी डर है कि गुस्सा सरकार पर है और कहीं बीच में उनके ऊपर न उतर जाए। चुनावी मौसम में फैली इस बीमारी की दवा स्थानीय स्तर पर कोई कर भी नहीं सकता है।

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