खाली जेब और भूख से ऐंठ रहा पेट करा रहा बेरोजगारी का अहसास Gorakhpur News

Lockdown मुंबई दिल्‍ली और अन्‍य स्‍थानों से गोरखपुर आने वाले मजदूरों की जेबें खाली हैं और अब उन्‍हें बेरोगारी की चिंता सता रही है।

By Pradeep SrivastavaEdited By: Publish:Wed, 27 May 2020 01:14 PM (IST) Updated:Wed, 27 May 2020 03:00 PM (IST)
खाली जेब और भूख से ऐंठ रहा पेट करा रहा बेरोजगारी का अहसास Gorakhpur News
खाली जेब और भूख से ऐंठ रहा पेट करा रहा बेरोजगारी का अहसास Gorakhpur News

गोरखपुर, जेएनएन। महामारी की बढ़ती भयावहता, खुशहाल जिंदगी के सपने को हर रोज चकनाचूर कर रही थी। खाली हो चुकी जेब और भूख से ऐंठ रहा पेट, बेरोजगारी का अहसास कराने लगे थे। कौन अपना है-कौन पराया, मुश्किल वक्त इसकी पहचान करा चुका था। ऐसे हालात में उन हजारों लोगों के पास वापस लौटने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था, जो रोजी-रोटी की तलाश में घर से दूर लॉकडाउन में फंस गए थे। हजारों मील के दुरूह सफर में हर पग पर अरमानों को अपने ही कदमों से रौंदकर घर पहुंचे लोगों की दास्तां सुनने वालों को झकझोर दे रही है। अपनी सरजमीं पर कदम पडऩे के सुखद अहसास का बखान करने के लिए उनके पास शब्द नहीं हैं, लेकिन जिंदगी है कि रुकने देती है न ही थकने। भविष्य की चिंता और परिवार की जिम्मेदारियां अब उन्हें नए तरीके से सोचने पर विवश कर रही हैं। 

वक्त ने अपने-पराये की पहचान कराई, नई जिंदगी पर होने लगा मंथन

क्वारंटाइन सेंटर से लेकर गांव की चौपालों तक में सुनी और सुनाई जा रही इनकी कहानियां दूसरों के लिए सबक बन रही हैं। सहजनवां के खीरीडार निवासी दीपक साहनी घर की गरीबी दूर करने महाराष्ट्र के थाणे गए थे। सब्जी बेचकर परिवार का गुजारा कर रहे थे कि अचानक लॉकडाउन में सब बंद हो गया। मकान मालिक ने दो महीने का तीन हजार रुपये किराया न लेकर इंसानियत दिखाई। तीन हजार रुपये किराया देकर ट्रक से घर के लिए चला तो उसने भी बस्ती लाकर छोड़ दिया। दीपक कहते हैं कि अब कहीं नहीं जाएंगे, गांव पर ही अब कोई रोजगार तलाशेंगे।

घर से रुपये मंगाकर लौटे वापस

मद्रास में हीरा घिसने वाले बैजनाथ और चंद्रकेश भी कुछ ही महीने पहले अपने सपनों को पूरा करने के लिए कैंपियरगंज के भरवलिया से रवाना हुए थे। लॉकडाउन में कंपनी मालिक ने मजदूरी देने से मना कर दिया। अब खाने के लिए रुपये थे न ही घर आने के लिए। ऐसे में अपने ही काम आए और घर से रुपये मंगाकर टूटे सपने लिये दोनों युवक घर लौट आए। ब्रह्मपुर क्षेत्र के जंगल रसूलपुर नंबर दो निवासी रितेश और परमेश्वर दो माह पहले टाइल्स का काम करने के लिए चंडीगढ़ गए थे। मगर जैसे ही वहां पहुंचे लॉकडाउन हो गया। सरकारी बस पकड़कर जैसे-तैसे घर आ गए। गोवा के पणजी में प्लंबर का काम करने वाले दुर्गेश हों या सूरत में फर्नीचर का काम करने वाले चंद्रभान सबकी कहानी कमोबेश एक ही जैसे है। भविष्य को लेकर चिंतित ये कामगार यहां काम न मिलने पर दोबारा वहीं जाने की सोचने लगे हैं।

पैदल ही घर के लिए निकल पड़े

कैंपियरगंज, शिवलहिया के अशरफी साहनी, कृष्णा यादव मुंबई में पेंट-पॉलिश करते थे। ठीकेदार ने लॉकडाउन के पहले का तो भुगतान कर दिया, लेकिन एडवांस के नाम पर इनकार कर दिया। खाली जेब लेकर पैदल ही घर के लिए निकल पड़े। कहीं खाना मिला तो खाया नहीं तो बस चलते ही रहे। नासिक में शटरिंग करने वाले सोनाटिकर के मोनू, राकेश, भी पैदल ही चले थे, रास्ते में ट्रक वाले ने बैठा लिया तो मंजिल आसान हो गई। गांव आने पर मनरेगा से रोजगार मिला तो कुछ राहत मिली। गाजियाबाद में सब्जी बचने वाले गोला के मरकड़ी निवासी श्रीराम मौर्य ने रुपये खत्म होने पर दो दिन बिस्कुट व पानी के सहारे बिताए। उधार लिया वह भी खत्म हो गया। इसके बाद स्वयंसेवी संस्थाओं  के काउंटर से भोजन का जुगाड़ कर पेट भरा। हिम्मत जब जवाब दे गई तो गाजियाबाद से पैदल ही घर चल पड़े। पीपीगंज के राजाबारी जसवल निवासी प्रमोद जायसवाल हों या मोहित यादव, बांसगांव के डेवड़ार निवासी दीपू या देवेंद्र। इनके जैसे हजारों कामगार अगर इस मुश्किल सफर को पूरा कर घर पहुंच पाए तो इसकी एकमात्र वजह उनकी घर पहुंचने की ललक थी।

मददगार नहीं वो फरिश्ता थे

खाली जेब व भूखे पेट लंबे सफर पर निकले इन कामगारों को स्वयंसेवी संस्थाओं, सरकारी विभागों और आमजन ने भोजन-नाश्ता कराया। उन मददगारों के एहसानमंद ये कामगार उन्हें इंसान नहीं फरिश्ता मानते हैं। उनका कहना है कि पूर्वजों ने कुछ पुण्य किए होंगे जो इस मुश्किल हालात में ऐसे लोगों ने सहारा दिया, जिनसे उनका कोई वास्ता ही नहीं था।

अंत में अपने ही आए काम

सहजनवां के दीपक हों या कैम्पियरगंज के चंद्रकेश और बैजनाथ या फिर हजारों दूसरे कामगार। लॉकडाउन के इस विपत्ति काल में रुपया खत्म होने के बाद उन्होंने जब उधार या एडवांस मांगा तो अधिकांश मालिकों और पड़ोसियों ने मजबूरी बताकर पल्ला झाड़ लिया। ऐसे में अपने ही काम आए और घर से रुपये मंगाकर इन कामगारों ने खाने और वापस आने का इंतजाम किया।

साइकिल खरीदने में सेठ ने की मदद

अलगटपुर के दुर्गेश कुमार कर्नाटक के बेलगाम में पेंट-पॉलिश करते थे। लॉकडाउन के बाद ठीकेदार ने ट्रस्ट के माध्यम से कुछ दिन खाना उपलब्ध कराया लेकिन समय बीतने के साथ हिसाब देकर हम लोगों को हमारे हाल पर छोड़ दिया। हमारी परेशानी देखकर वहीं के एक सेठ ने हमारे साथ के 10 लोगों को साइकिल खरीदने में मदद की। जिसके बाद हम साइकिल से ही घर चल पड़े। 

chat bot
आपका साथी