Jagran Column : बोर्ड से बढ़ जाता है महीने वाली आय का पैमाना Bareilly News
रेलवे जंक्शन के बाहर लगने वाला जाम भले ही हमारे आपके लिए मुसीबत की वजह हो मगर जीआरपी के लिए यह सुखदायी है। जितना ज्यादा जाम लगता है उतना ज्यादा दाम मिलता है।
अभिषेक पांडेय, बरेली : रेलवे जंक्शन के बाहर लगने वाला जाम भले ही हमारे, आपके लिए मुसीबत की वजह हो मगर जीआरपी के लिए यह सुखदायी है। जितना ज्यादा जाम लगता है, उतना ज्यादा दाम मिलता है। दरअसल, जंक्शन के बाहर ऑटो, टेंपो वाले सर्कुलेटिंग एरिया तक पहुंच जाते हैं। स्टैंड से अलग मुख्य गेट पर खड़े रहने से जाम लगता है। जिसमें फंसकर यात्रियों की ट्रेनें छूटती हैं, रोजाना झगड़े होते हैं। जीआरपी के पास जिम्मेदारी है कि वह टेंपो-ऑटो वालों को हटाए मगर महीने में होने वाले आय की फिक्र में वह ऐसा नहीं करती। बल्कि इससे फायदा यह है कि जब जाम बढ़ता है तो नो पार्किंग का बोर्ड लगा दिया जाता है। मोटा चालान काटने की चेतावनी दी जाती है। टेंपो-ऑटो वाले समझ जाते हैं कि बुलावा आया है। जीआरपी के कुछ खास लोगों से मिलते हैं, महीने वाली आय का पैमाना कुछ बढ़ जाता है। इसके बाद बोर्ड गायब।
फोटो वाली मेहनत जारी
रेल विभाग ने सूचनाएं देने के लिए अलग विभाग बना दिया, उसके अलावा विभागीय मामलों पर कोई अधिकृत बयान नहीं देता। व्यवस्था बननी चाहिए, यह बात भी ठीक है। मगर, इसका एक और पहलू भी है। यह अक्सर इस व्यवस्था का उपयोग वह जनहित के सवालों की बौछार से बचने के लिए कर लेते हैं। बात जब प्रचार-प्रसार पाने की आती है तो व्यवस्था का पुलिंदा बनाकर किनारे रख देते हैं। खुद आगे आते हैं और फोटो खिंचवाते हैं, उसके जरिये शोहरत पाने के लिए मीडिया के दफ्तरों में भेज देते हैं। टिकट कालाबाजारी में एक को पकड़ते हैं, दर्जनों लोगों तक इसकी सूचना पहुंचाते हैं। इतना तक रहता तब भी ठीक, कई बार तो ऐसा होता है कि गुडवर्क सौ किमी दूर करते हैं और फोटो छपवाने की ताक वहां से लेकर यहां तक लगाए रहते हैं। चलिए यह भी ठीक है, मगर कुछ बड़े काम भी तो करिए।
जुगाड़ करके फंस गए
परिवहन निगम की बसों के हाल सभी को पता हैं। जितनी चलती हैं, उससे ज्यादा संभलती हैं। इसके बावजूद दुरुस्त नहीं रहतीं। मेंटीनेंस और फिटनेस से जूझ रही ऐसी ही एक बस कुछ दिन पहले यात्रियों के लिए मुसीबत बन गई। शाम के वक्त पीलीभीत डिपो को वो बस बरेली से जैसे ही चली, पता चला दोनों हेडलाइट खराब हैं। ऐसा रोडवेज में अक्सर में होता है, चालक इसका आदी था इसलिए हमेशा की तरह जुगाड़ का रास्ता बना लिया। एक ट्रक के पीछे बस को लगाया और नवाबगंज तक पहुंच गया। जुगाड़ ने तीस किमी का सफर तो तय करा दिया था मगर उस खतरे का क्या, 50 यात्रियों ने जिसका सामना किया। फिक्र सिर्फ उस दिन की नहीं है। चिंताजनक तो यह है कि जिन बसों में यात्रियों को सुविधाएं मिलनी चाहिए, उनमें खतरे का सफर कराया जा रहा। चालक, परिचालकों की जुगाड़ वाले आदत तो छूटनी चाहिए।
उनके सपने बड़े सुहाने
परिवहन निगम वालों के पास गिनाने के लिए बड़े काम नहीं होते तो वे इसकी पूर्ति सपनों से करते हैं। खूब दिखाते हैं। दिन में खासतौर से। वह भी खुली आंखों से। कभी कहेंगे कि सेटेलाइट बस स्टैंड अत्याधुनिक बन जाएगा, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स से लेकर होटल तक सारी सुविधाएं मिलेगी। तो कभी बताते हैं कि पूरा कैंपस वातानुकूलित हो जाएगा। शुरूआत में कहा तो बात पर भरोसा करना पड़ा, क्योंकि लखनऊ का हवाला दिया गया था। साल भर गुजर गया तो कुछ शंका हुआ। सपने पूरे करने के बारे में विभागीय अफसरों से पूछा तो कहा कि मामला अभी फाइनल नहीं हो सका है। कहकर दो-तीन महीने टाल दिए। फिर सवाल हुआ तो प्रस्ताव का बहाना देकर खिसक लिए। अगली बार सवाल से सामना न हो जाए इसलिए अब सब चुप बैठे हैं। मानो कह रहे हों, अमां सपने ही तो दिखाए थे। पूरे करने का जिम्मा नहीं लिया था।