कविताओं से दुनिया में फैलाया गुरु का संदेश

कविताओं से दुनिया में फैलाया गुरु का संदेश

By JagranEdited By: Publish:Sat, 19 Oct 2019 12:11 AM (IST) Updated:Sat, 19 Oct 2019 12:11 AM (IST)
कविताओं से दुनिया में फैलाया गुरु का संदेश
कविताओं से दुनिया में फैलाया गुरु का संदेश

प्रताप जायसवाल, देवा (बाराबंकी)

यह शायद कम लोगों को ही पता होगा कि जिनके कलामों के बिना आज भी सूफी महफिल अधूरी मानी जाती है उन महान सूफी कवि हजरत बेदम शाह की मजार देवा के नुमाइश में स्थित है। हाजी वारिस अली शाह के कृपापात्र शिष्यों में एक बेदम शाह वारसी ने 'छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के' और 'बेखुद किए देते हैं अंदाजे हिजाबाना' जैसे विश्व प्रसिद्ध सूफी कलाम लिखे। उन्हें सूफी के दरबार में वही ओहदा हासिल था जो हजरत निजामुद्दीन के दरबार में अमीर खुसरो का था। उन्होंने अपने काव्य से अपने पीर (गुरु) हाजी वारिस के संदेश को सरहदों के पार तक पहुंचाने का काम किया। आज भी उनके कलाम भारत, पाकिस्तान के साथ खाड़ी देशों में सूफी महफिलों की शान बनते हैं।

वारसी सिलसिले के खुसरो (कवि) कहे जाने वाले बेदम शाह पर अपने गुरु हाजी वारिस अली शाह की असीम अनुकंपा थी। बाबा के हाथों से अहराम पाने वालों में एक हजरत बेदम शाह वारसी ने अपनी गजल, रुबाई, नात शरीफ, सलाम व हम्द के साथ बसंत, दादरा, ठुमरी, मल्हार, होली और भजनों के माध्यम से सूफी दर्शन का प्रचार-प्रसार किया। सन 1879 में इटावा में जन्मे बेदम शाह वारसी नें सूफी कवियों के क्षेत्र में असीम बुलंदियों को छुआ। इस पर उन्होंने अपने गुरु को धन्यवाद देते हुए इन्होंने लिखा 'बनाया रश्के मेहरो-मह तेरी जर्रानवाजी ने, नहीं तो क्या है बेदम और क्या बेदम की हस्ती है।'

अपनी तमाम रचनाओं के माध्यम से उन्होंने सूफी दर्शन के उपदेशों और शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। इन्होंने गुरु को ईश्वर स्वरूप मानकर उनकी भक्ति और आराधना उसी प्रकार की जैसी रसखान और सूरदास नें श्रीकृष्ण की की थी। गुरु की महिमा पर इन्होंने लिखा 'बिन गुरु चाहे वन-वन फिरियो बिन गुरु के तारे न तरियो, 'दीन दयाल गिरिवर गिरधारी, मोहिनी सूरत चाल मतवारी' सहित कई ऐसे कलाम लिखे हैं जिनके बगैर सूफी संगीत की महफिल अधूरी रहती है। 24 नवंबर 1936 को उन्होंने यह कहकर इस संसार से विदा लिया कि 'थका थका सा हूं कि नींद आ रही है सोने दे, बहुत दिया है तेरा साथ जिदगी मैंने'। उनकी इच्छा के अनुसार देवा के नुमाइश मैदान में सैयद कुर्बान अली शाह की समाधि के निकट उन्हें समाधि दी गई।

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