CoronaVirus का कहर, काम छिना तो सिर पर गठरी रख धूप में पैदल घर की तरफ बढ़ा दिए कदम
पिछले साल की तरह फिर कामगारों को काम छिनने पर पैदल ही घरों के लिए रवाना होना पड़ रहा है। महिलाएं और बच्चे भी सिर पर गठरियां और हाथों में थैला थामे पैदल जाते दिख रहे हैं। भूखे प्यासे बच्चों को यूं पैदल जाता देख लोग कांप जा रहे हैं
प्रयागराज, जेएनएन। कोरोना वायरस संकट जानलेवा बना ही है, यह लोगों के रोजगार और पेट के निवाले भी छीन रहा है। पिछले साल कोरोना की शुरूआत की तरह फिर कामगारों को नौकरी और काम छिनने पर पैदल ही घरों के लिए रवाना होना पड़ रहा है। महिलाएं और बच्चे भी सिर पर गठरियां और हाथों में थैला थामे पैदल जाते दिख रहे हैं। धूप में भूखे प्यासे बच्चों को यूं पैदल जाता देख लोग कांप जा रहे हैं लेकिन कोरोना का कहर यही है जिसे लोग झेल रहे हैं। प्रयागराज में रीवा रोड या शहर की सड़कें, ऐसे नजारे हर तरफ दिख रहे हैं।
काम की आस में आए मगर कोरोना की वजह से मिली निराशा
पैदल धूप में अपने घर की तरफ जाते लोगों से बात करिए तो दुख से कलेजा फटने को आता है। रीवा के मनोज हों या सीधी के रामसुमेर। सबकी अपनी पीड़ा है सबका अपना दुख। ऐसे ही बबलू ने बताया कि सिंगरौली से ठेकेदार ने शुक्रवार को काम के लिए बुलाया था लेकिन, रविवार को साप्ताहिक बंदी लागू हुई। काम भी छिन गया है। घर लौटने के लिए जेब में रुपये भी नहीं है। इसलिए अब पैदल ही करीब 240 किलोमीटर का सफर तय करना है। यह कहते हुए बबलू की आंखें डबडबा गईं। दरअसल, सिंगरौली से बबलू अपने गांव के ही चार साथियों के साथ काम की तलाश में फरवरी में यहां आया था। ईंटा-गारा का काम भी मिला। इस बीच होली मनाने सभी घर चले गए थे। बबलू ने बताया कि ठेकेदार ने फोन कर कहा कि प्रयागराज आ जाओ काम मिल गया है। इस पर रास्ते भर अपनी जरूरतों को पूरा करने का सपना देखते हुए वह 16 अप्रैल को राजापुर पहुंचा। उसके साथ गांव के ही गुलाब, मिश्री लाल, उमेश, अमर बहादुर भी थे। मिश्री लाल ने बताया कि ठेकेदार ने कहा कि संक्रमणकाल में काम नहीं मिल रहा है। लगातार हालात बिगड़ रहे हैं। सभी लोग घर लौट जाओ। जब हालात सामान्य होंगे और काम मिलेगा तो संदेश भेजेंगे। इस पर चारो साथी सिर पर गठरी रख पैदल ही घर की ओर चल दिए।
प्यास से गला सूखा और आंखो में आंसू
आंखों में आंसू और रूंधे गले से मनोज और गुलाब बोले, पिछली बार भी लॉकडाउन में फंस गए थे। कोई साधन नहीं मिल रहा था। जो मिलते थे, वे किराया बहुत ज्यादा मांगते थे। हमारे पास ज्यादा रुपये भी नहीं थे। घर पहुंचने की चाह में पैदल ही चल दिए थे। पूरे चार पैदल चलकर गांव पहुंचे तो ऐसा लगा मानो सबकुछ मिल गया हो।
रोजगार ही नहीं रहा तो क्या करेंगे यहां
रामललली और अमर बहादुर ने बताया कि छह माह काम कर 50 हजार रुपये घर भेजने की योजना बनाई थी। ताकि घर पर कुछ काम निपटाए जा सकें। लेकिन, संक्रमण बढऩे से यह काम भी हाथ से चला गया। जब काम ही छिन गया तो यहां रूक कर क्या करेंगे। कुछ हो गया तो परिवार के लोग परेशान होंगे। घर पर कम से कम सभी साथ तो होंगे। अब कोरोना ने जिंदगी में जहर घोल रखा है तो इसी तरह जीना ही मजबूरी है।