'दक्षिण के योगदान को किया जाए स्वीकार'

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : भारतीय इतिहासकारों ने वृहत्तर भारत की कल्पना में दक्षिण-पूर्व एशिया की स

By Edited By: Publish:Fri, 12 Feb 2016 12:58 AM (IST) Updated:Fri, 12 Feb 2016 12:58 AM (IST)
'दक्षिण के योगदान को किया जाए स्वीकार'

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : भारतीय इतिहासकारों ने वृहत्तर भारत की कल्पना में दक्षिण-पूर्व एशिया की संस्कृति को भारतीय संस्कृति का अंग बताया था। लेकिन अभी भी दक्षिण भारत के उस विशेष योगदान को स्वीकार नहीं किया है, जिसने दक्षिण पूर्व एशिया की संस्कृति को आगे बढ़ाया। यह बातें गुरुवार को भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के पूर्व अध्यक्ष प्रो.दयानाथ त्रिपाठी ने कहीं।

प्रो.त्रिपाठी ने इलाहाबाद संग्रहालय में 'भारतीय मानसून और दक्षिण पूर्व एशिया : सभ्यताओं का सम्मिश्रण' विषयक संगोष्ठी में संबोधन करते हुए पश्चिमी एवं भारतीय विचार धाराओं की समीक्षा की और कई बिंदुओं पर सुझाव भी दिए। बीज वक्तव्य में प्रो. हरिदत्त शर्मा ने दक्षिण-पूर्व एशिया में संस्कृत भाषा के प्रसार एवं प्रभाव को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि दक्षिण-पूर्व एशिया की संस्कृति का भारतीयकरण नहीं हुआ, बल्कि संस्कृतकरण हुआ है। निदेशक गौरव कृष्ण बंसल ने अतिथियों का स्वागत किया। संचालन डा.सुनील गुप्ता ने किया। संगोष्ठी के प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रो.विद्याधर मिश्र ने की। इस दौरान प्रो.दयानाथ त्रिपाठी, डा.वी सिल्वा कुमार, डा.ओए वानखेड़े, डा.राम नरेश तिवारी, प्रो.ओम प्रकाश, प्रो.यूसी चट्टोपाध्याय, प्रो.अनामिका राय, प्रो.सुनीता पांडेय, प्रो.सालेहा हमीद, डा.एसके सिंह, रविनंदन सिंह, डा.संजू मिश्र आदि मौजूद रहे।

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