War of 1971: फड़कती थीं भुजाएं, जर्रा-जर्रा गाता था वीरगाथा, भुलाए नहीं भूलता भारत-पाक युद्ध वो मंजर

भारत-पाक युद्ध 1971 के दौरान वीर जवानों के क्षेत्र बाह में घर-घर सजती थीं चौपालें। दुश्मन को सबक सिखाने बेताब थे युवा जिंदाबाद के गूंजे थे नारे। 49 बरस बीतने के बाद भी लोगों को याद आ जाता है वह मंजर। हर युवा भर रहा था पाक के खिलाफ हुंकार।

By Prateek GuptaEdited By: Publish:Sun, 06 Dec 2020 01:02 PM (IST) Updated:Sun, 06 Dec 2020 01:02 PM (IST)
War of 1971: फड़कती थीं भुजाएं, जर्रा-जर्रा गाता था वीरगाथा, भुलाए नहीं भूलता भारत-पाक युद्ध वो मंजर
बाह बटेश्‍वर क्षेत्र से 1971 की लड़ाई में कई जांबाजों ने भाग लिया था। प्रतीकात्‍मक फोटो

आगरा, सत्येंद्र दुबे। 1971 का भारत-पाक युद्ध। वीर जवान दुश्मन से सीमा पर जूझ रहे थे। इधर, हर जुबान उनकी गाथा गुनगुना रही थी। बाह की चौपालों पर युद्ध की चर्चा छिड़ती। भुजाएं फड़कने लगतीं। युवा मोर्चे पर जाने को बेचैन हो उठते।

वह दौर ही कुछ ऐसा था। भारत को आजाद हुए 25 साल से कुछ अधिक ही बीते थे। भारत पड़ोसी देशों से अब तक तीन युद्ध लड़ चुका था। इस बार मोर्चा तगड़ा था। पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) ने मुक्ति संघर्ष छेड़ दिया था। पाक ने भारत से युद्ध का एलान कर दिया। बाह तहसील के गांवों में सुबह से ही चौपालों पर युद्ध की चर्चा चल पड़ती। इस इलाके के कई जांबाज सीमा पर जान की बाजी लगाए हुए थे। नहटौली गांव के रामचंद्र दीक्षित (90 वर्ष) को युद्ध की यादें आज भी ताजा हैं। कहते हैं, उस समय गांव में न बिजली थी न टेलीविजन। अखबार और रेडियो ही सूचना के साधन थे। युद्ध जब छिड़ा तब मौसम सर्द था। अलाव तापने लोग इकट्ठा होते। कोई एक अखबार पढ़कर सुनाता, बाकी दम साधकर सुनते। बाह निवासी सभाराम (80 वर्ष) की तब उम्र करीब 30 वर्ष थी। कहते हैं जब जानकारी मिलती कि सेना ने दुश्मन को पीछे ढकेल दिया है तो गांव खुशी से उछल पड़ता। दिन भर यह जानने की उत्सुकता रहती कि दुश्मन के किस इलाके में बम गिरे हैं। बड़ा गांव के महावीर सिंह भी इस युद्ध में शामिल हुए थे। प्रकाश बाबू कहते हैं, गांव के लोग रोज महावीर सिंह के दरवाजे पहुंच जाते। वहां युद्ध की चर्चा करते और उनके परिवार का हौसला बढ़ाते। गांव के युवाओं में जोश था। हर एक चाहता कि सरकार उसे भी युद्ध में शामिल होने का मौका दे। बटेश्वर गांव के रामसिंह आजाद बताते हैं कि गांव में तब एक-दो लोगों के पास रेडियो था। पाक सेना के हार जाने की जानकारी हुई, तो पूरा गांव भारत जिंदाबाद के नारों से गूंज उठा था।

साथी की शहादत पर तीन दिन भूखे रहकर संभाला मोर्चा

मैं सेना में सिपाही के पद पर वर्ष 1970 में भर्ती हुआ। एक साल बाद ही मोर्चे पर भेज दिया गया। युद्ध के लिए मुझे सैनिकों के साथ तब के पूर्वी पाकिस्तान के तिलिया मोरा कुम्हिला सेक्टर भेजा गया। कमांडर का हमें निर्देश मिला तो सैनिकों के साथ पाकिस्तानी सेना के साथ युद्ध किया। तब लाइट मशीन गन (एलएमजी) मेरे हाथों में थी। दुश्मन से लड़ते हुए आगे बढ़ते रहे। हमारे साथी सैनिक लगातार बहादुरी से लड़ रहे थे। हमारी जवाबी कार्रवाई से दुश्मन के पैर उखड़ गए। अचानक शाम के समय एक हैंड ग्रेनेड दुश्मन की ओर से फेंका गया। उसकी चपेट में आकर पौढ़ी गढ़वाल के प्रेमचंद्र शहीद हो गए। प्रेमचंद्र मेरे पास में ही लड़ रहे थे। उनकी शहादत ने मुझे अंदर तक हिला दिया। इतनी तकलीफ हुई कि तीन दिन तक खाना नहीं खाया। साथी की शहादत का बदला लेने के लिए मेरी भुजाएं फड़कती रहीं और फिर मैंने अन्य साथियों के साथ मिलकर दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। आखिर बहादुरी काम आई और हमने पाकिस्तानी सेना को खदेड़ दिया। इस युद्ध में विजय के बदले मुझे लांस नायक बना दिया गया। सेना में भर्ती के बाद ये पहला युद्ध मैं कभी नहीं भूल सकता। युद्ध में काफी अनुभव मिले, जो जीवन में बहुत काम आए। 1996 में सेना से रिटायर हो गया। आज 14 बरस हो गए, लेकिन युद्ध का हर लम्हा आज भी आंखों में कैद है।

(जैसा मांट क्षेत्र के लमतोरी गांव निवासी महेंद्र प्रताप ने अभय गुप्ता को बताया)

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