महाराष्ट्र की इस लोकगायन शैली का अक्श दिखता है ताजनगरी की परंपरा में भी Agra News
संगीत की अदभुत परंपरा है ख्यालगोई। आगरा में बसंत पंचमी से होली तक खासतौर पर ख्यालगोई की महफिलें सजा करती थीं।
आगरा, आदर्श नंदन गुप्त। ब्रज की लोक परंपराओं में ख्यालगोई का प्रमुख स्थान है। एक समय था जब ख्यालगोई स्वस्थ मनोरंजन का अहम हिस्सा थी। आगरा में बसंत पंचमी से होली तक खासतौर पर ख्यालगोई की महफिलें सजा करती थीं। महाराष्ट्र की लोकगायन शैली लावनी पर आधारित ख्यालगोई के अक्स आगरा की परंपरा में आज भी मिलते हैं। कुछ लोग इस परंपरा को जीवित रखे हैं।
हारमोनियम और चंग के साथ जब गायक अपने सुर बिखेरते हैं तो माहौल खुशनुमा हो जाता है। दूसरा गायक उसी शैली में जवाब देकर उसे और भी लाजवाब बना देता था। लोक गायन की यह पारंपरिक विधा अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है, जिसे संजोने की जरूरत है। आगरा में इसका एक ही अखाड़ा रह गया है।
इस गायन शैली में अद्भुत काव्य रचना भी होती है। इसे गतागत शैली (उलट-पलट) कहते हैं, जो काफी जटिल है। इसे दोनो तरफ से पढ़ा जा सकता है। जैसे -रस रास रचो वन में, मैं नवचोर सरासर।
गायन की इस विधा में ऐसे बहुत प्रयोग हुए हैं, जिसमें हर पंक्ति के आगे वर्ण माला के अक्षर आते हैं। इसे कठेरा कहा जाता है-काजल की रेख चली करके, कजरा तैरत कजरारे में,
खल खंडन हारे दृश्य लखे, खींचे खाके, जल खारे में।
जब मंच से गायक उच्च सुरों में गाते हैं तो हिंदी का विलक्षण अहसास होता है-
कृष्ण कमल में, कमल में लोचन
लोचन में प्रिय, प्रिय में चांद।
चांद में आभा, आभा में द्रुति,
द्रुति में छटा, छटा में वृंदा।
मुगलकालीन है यह शैली
हिंदी साहित्य की यह कठिन और दुर्लभ लोकगायन शैली मुगलकाल की है, जब उर्दू भाषा हावी रहती थी। लिखने और पढऩे में ङ्क्षहदी से लोग बचा करते थे। ऐसे में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए इस कला का आविष्कार किया गया गया। इसमें दो पक्ष होते थे, एक कलगी और दूसरा तुर्रा पक्ष। आपस में इनकी प्रतिस्पर्धा होती थी। सवाल जवाब भी होते थे। इन्हें सुनने को श्रोता रात भर बैठा करते थे।
शहर में ख्यालगोई गायन के पहले आधा दर्जन से अधिक अखाड़े हुए करते थे। अब एक ही अखाड़ा रह गया है-लाला पन्नालाल महाराज पं.रूपकिशोर। उस्ताद जलद की गद्दी नीरज शर्मा (कचहरी घाट) पर और पं.मेघराज दुबे (सिटी स्टेशन रोड) की पगड़ी पं.मनोज दुबे संभाले हुए हैं।
महाराष्ट्र की लोकगायन शैली लावनी को ब्रज मंडल में ख्यालगोई कहते हैैं। इसका गायन महाराष्ट्र में काफी समय पहले से होता था। संस्कृतिकर्मी राजबहादुर सिंह राज के अनुसार इसके संस्थापकों में संन्यासी तुखनगिरी भक्ति परंपरा के थे, जबकि शाह अली सूफी परंपरा के।
चंदेली के महाराजा ने शास्त्रार्थ कराया, जिसमें ब्रह्मï ज्ञान पर काव्यागत शास्त्रार्थ करना था। इसमें अली साहब को कलगी और तुखनगिरी को तुर्रा दिया गया था। वहीं से इसकी परंपरा शुरू हुई। ख्यालगोई के छंद को तातंक छंद कहते हैैं, जिसमें तीस मात्राएं होती है।
ख्यालगोई में आठ रंगत होती हैं, जिनमें छोटी रंगत, नई रंगत, रंगत ङ्क्षरदानी, रंगत दौड़, खड़ी रंगत, लंगड़ी रंगत, शिकस्ता रंगत, जिकड़ी रंगत होती है। कता, झड़ी, शेर, दोहे, गजल का उपयोग भी किया जाता है।
आगरा में तुर्रा पक्ष के लोगों की संख्या अधिक है। आगरा में इसकी स्थापना तुखनगिरी ने हाथी घाट पर वसंत पंचमी के आसपास की थी। तभी से तीन दिन का निशान पूजन यहां किया जाता है। जगह-जगह आयोजन ख्यालगोई के किए जाते हैैं। उस समय गुरुओं में इतवारी लाल, गोपाल दास चौरसिया, ओमप्रकाश लाला, बाबू गोहर, दिनेशचंद शर्मा, चंदू पहलवान, मदनलाल, रूपकिशोर, कचहरी घाट के राजेंद्र शर्मा जलद गुरु थे।
यह हैंं गायक
तुर्रा पक्ष
नीरज शर्मा कचहरीघाट, हरेश यादव पीपलमंडी, दुर्गा प्रसाद लोहामंडी, विष्णु अग्र्रवाल बल्केश्वर, रामेभाई यमुनापार, लखन गहलौत, हफीज खलीफा, वजीरपुरा।
कलगी पक्ष
बनी प्रसाद मोतीकटरा, प्रेमपाल शर्मा सौफुटा कालिंदीपुरम।
क्या कहते हैं जानकार
इस प्राचीन परंपरा को जीवंत रखने के प्रयास किए जा रहे हैैं। ताज महोत्सव में इस बार भी ख्यालगोई का कार्यक्रम किया जाएगा।
राजबहादुर राज, वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी
ख्यालगोई लोकगायन की एकमात्र ऐसी परंपरा है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक घटनाक्रम पर त्वरित प्रतिक्रिया दी जाती है। इसके संरक्षण की जरूरत है।
अनिल शुक्ला, वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी
सरकारी, गैर सरकारी स्तर पर इसके संरक्षण का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। जबकि इसके संरक्षण की बहुत जरूरत है।
नीरज शर्मा, उस्ताद
ख्यालगोई के रचनाकारों की कमी हो गई है। अब तो उनके साहित्य को संरक्षण करने की ही जरूरत है। ताकि नई पीढ़ी इस जटिल साहित्य से अवगत हो सके। क्योंकि ऐसा साहित्य अब बहुत कठिन है।
पं.मनोज दुबे, उस्ताद