August Kranti 2020: आंदोलन की दावानल में आगरा का ये रेलवे स्टेशन हो गया था खाक

August Kranti 2020 गोरों के आतंक का जवाब देने के लिए एक हजार से अधिक ग्र्रामीण बरहन रेलवे स्टेशन पर एकत्र हो गए। 8-10 की टुकडिय़ों में बंटे और फिर स्टेशन पर धावा बोल दिया।

By Tanu GuptaEdited By: Publish:Thu, 06 Aug 2020 03:51 PM (IST) Updated:Thu, 06 Aug 2020 03:51 PM (IST)
August Kranti 2020: आंदोलन की दावानल में आगरा का ये रेलवे स्टेशन हो गया था खाक
August Kranti 2020: आंदोलन की दावानल में आगरा का ये रेलवे स्टेशन हो गया था खाक

आगरा, जागरण संवाददाता। अगस्त क्रांति यानी 9 अगस्त। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अगस्त क्रांति के नाम से मशहूर भारत छोड़ो आंदोलन का करीब तीन-चार साल का दौर अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने के साथ पेचीदा भी था। यह आंदोलन देशव्यापी था जिसमें बड़े पैमाने पर भारत की जनता ने हिस्सेदारी की और अभूतपूर्व साहस और सहनशीलता का परिचय दिया। अंग्रेजी हुकूमत की ताबूत में अंतिम कील ठोंकने को आतुर हर भारतीय नौजवान तड़प रहा था पर आवश्यकता थी एक सामूहिक निर्णय एवं ठोस रणनीति की। दस अगस्त को ताजनगरी में अगस्त क्रांति की जो ज्वाला धधकी वह आगे की तिथियों में वह दावानल बन गई। गोरों के खिलाफ गांवों में भी विरोध की खदबदाहट थी। आंदोलन इतना तेज था कि बरहन रेलवे स्टेशन पर संचार व्यवस्था ठप करने की रणनीति तक बना ली गई। 14 अगस्त, 1942 का वह दिन आज भी सुर्खियों में है। गोरों के आतंक का जवाब देने के लिए एक हजार से अधिक ग्र्रामीण बरहन रेलवे स्टेशन पर एकत्र हो गए। 8-10 की टुकडिय़ों में बंटे और फिर स्टेशन पर धावा बोल दिया। स्टेशन को आग लगा दी और देखते ही देखते स्टेशन धू-धूकर जलने लगा। यहां टेलीफोन के तार काटकर संचार व्यवस्था पूरी तरह ठप कर दी गई। 

गरीबों में बांट दिया गोदाम का राशन

रेलवे स्टेशन को तहस-नहस करने के बाद जनसमूह कस्बे की ओर बढ़ा। डाकघर और सरकारी बीज गोदाम पर भी आक्रमण कर दिया गया। एक हजार मन गल्ला निकालकर गरीबों में बांट दिया गया। मौके पर पुलिस पहुंची और गोलियां चलाने लगी। गोलीबारी में बैनई गांव के केवल सिंह जाटव  शहीद हो गए। कई आंदोलनकारी इसमें घायल भी हो गए।

शहादत से पहले पानी तक नहीं पिया

बरहन कांड के बाद मितावली स्टेशन को जलाने की जिम्मेदारी स्वामी जयंती प्रसाद, लक्ष्मी नारायण आजाद और कुबेरपुर स्टेशन का काम प्यारेलाल को दिया गया। चमरौला रेलवे स्टेशन को फूंकने की जिम्मेदारी राम आभीर व सीताराम गर्ग को मिली। चमरौला व जलेसर रोड के बीच दो बार टेलीफोन के तार काट दिए गए। 28 अगस्त 1942 को चमरौला स्टेशन पर धावा बोल दिया गया। इसकी जानकारी पहले ही अधिकारियों को थी, सो पुलिस के जवान पहले ही पहुंच गए। किशनलाल स्वर्णकार ने रेलवे स्टेशन के दफ्तर में मिïट्टी का तेल छिड़क जलाने की कोशिश की। माचिस हाथ में थी, इसी बीच पुलिस वालों ने गोली दाग दी। जिसमें किशनलाल ने माचिस पकड़ी थी, वह अंगुलियां उड़ गईं। सीताराम गर्ग के सीने पर गोली लगी और पार निकल गई। कई लोग घायल हो गए। साहब सिंह, खजान सिंह, सोरन सिंह मौके पर ही शहीद हो गए। तीनों शहीदों के पार्थिव शरीर और मरणासन्न हालत में उल्फत सिंह को रेल के इंजन में रखकर पुलिस टूंडला ले गई। उल्फत सिंह ने पीने के लिए पानी मांगा। जब स्टेशन मास्टर पानी लेकर आया तो उल्फत सिंह ने ये कहते हुए पीने से मना किया कि तुम तो अंग्र्रेजों के पिट्ठू हो तुम्हारे हाथ से पानी नहीं पी सकता। पानी नहीं पिया और टूंडला के आउटर सिग्नल तक पहुंचते पहुंचते शहीद हो गए। जब शहादत हुई तो चारों की उम्र महज 20 बरस के आसपास थी।

नहीं उतारे थे सुहाग चिह्न

चमरौला कांड के शहीदों के पार्थिव शरीर जब शिनाख्त के लिए लाए गए, तो किसी भी ग्र्रामीण ने पहचान नहीं की। शहीदों की विधवाओं ने भी अपना सुहाग चिह्न नहीं उतारे ताकि पुलिस को कुछ पता न चल सके। बरहन और चमरौला कांड के बाद क्षेत्र के 250 लोगों की गिरफ्तारी की गई। लेकिन किसी प्रकार का सुबूत न मिल पाने के कारण उन्हें महज दो माह में ही छोडऩा पड़ा। खीझ मिटाने के लिए सरकार ने इस क्षेत्र पर 25 हजार रुपये का सामूहिक जुर्माना किया, जो बाद में 1947 के बाद सरकार ने वापस कर दिया। 

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