जीवन का प्रथम अनुबंध किसको माना है?
सामान्यत प्रत्येक कार्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति पात्र नहीं होता। इसलिए अनधिकारी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य सफल और लोकमंगलकारी हो यह आवश्यक नहीं परंतु अधिकारी (पात्र) व्यक्ति द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य सफल भी होता है और लोकमंगलकारी भी।
नई दिल्ली, डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र। अनुबंध चतुष्टय में ‘अधिकारी’ को प्रथम अनुबंध स्वीकार किया गया है। मानव की आध्यात्मिक और लौकिक यात्रा के निर्विघ्न संचालन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। लोक में इसके लिए योग्यता या पात्रता पद का प्रयोग होता है, जिसका तात्पर्य है, किसी कार्य के निष्पादनार्थ पात्रता प्राप्त करना।
सामान्यत: प्रत्येक कार्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति पात्र नहीं होता। इसलिए अनधिकारी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य सफल और लोकमंगलकारी हो, यह आवश्यक नहीं, परंतु अधिकारी (पात्र) व्यक्ति द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य सफल भी होता है और लोकमंगलकारी भी। इसलिए अधिकारी आत्मिक और जागतिक कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाला मानव जीवन का प्रथम अनुबंध है। इसीलिए इसे शास्त्रों में विशेष महत्व दिया गया है।
वेदांत में अधिकारी को परिभाषित करते हुए कहा गया-जिसने विधिवत ज्ञान प्राप्त कर काम्य एवं निषिद्ध कर्मों का परित्याग कर दिया है। नित्य, नैमित्तिक और उपासनादि कर्म करने से जिसकी बुद्धि परिष्कृत और अंत:करण निर्मल हो चुका है, ऐसा पापरहित व्यक्ति ही विशिष्ट ज्ञान का अधिकारी है। विश्वामित्र आदि ऋषियों ने अधिकारी समझकर ही राम को विविध आयुध प्रदान किए, जिससे उनका दुरुपयोग न हो सके।
जैसे अधिकारी व्यक्ति का ज्ञान लोकमंगल के लिए होता है, उसी प्रकार अधिकारी को प्रदान की गईं शक्तियां समाज, देश और मानवता की रक्षा के लिए होती हैं। इतिहास साक्षी है कि जब भी अनधिकारी को शक्तियां प्रदान की गई हैं, उनका दुरुपयोग ही हुआ है। आज अभूतपूर्व वैज्ञानिक प्रगति ने मनुष्य को सभी क्षेत्रों में साधन संपन्न किया है। जहां मानवता के लिए उनका उपयोग दुनिया को स्वर्ग बना सकता है तो दुरुपयोग संपूर्ण मानवता को अभिशप्त कर सकता है। इसलिए आज अधिकारी पद की प्रासंगिकता और बढ़ गई है। अत: निजी एवं सामाजिक जीवन के मंगल के लिए इसकी सिद्धि आवश्यक है।