भगवान श्री राम ने शबरी को इस वजह से प्रिय कहकर किया धन्य

सत्संग के बिना जीवन और व्यवहार में भक्ति की गंगा कर्म की यमुना और ज्ञान की सरस्वती का प्रवाह संभव नहीं है। इनके संगम के अभाव में हमारे विचार पक्ष का प्रयोग जब विचार जीवन में किया जाएगा तब जीवन की प्रयोगशाला में असफल हो जाएगा। वह भगवान के चरित्र समुद्र में जाकर अपनी परिपूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकेगा।

By Jagran NewsEdited By: Kaushik Sharma Publish:Sun, 17 Mar 2024 11:21 AM (IST) Updated:Sun, 17 Mar 2024 11:21 AM (IST)
भगवान श्री राम ने शबरी को इस वजह से प्रिय कहकर किया धन्य
भगवान श्री राम ने शबरी को इस वजह से प्रिय कहकर किया धन्य

नई दिल्ली, स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। भगवान श्रीराम ने अरण्यकांड में भक्तिमती शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए संतों के साथ अर्थात सत्संग को ही प्रथम भक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है। इस बार पढ़िए प्रथम भक्ति सत्संग के गुण और प्रभाव को...

चित्त वृत्ति का बड़ा योगदान है सत्संग धारण करने में। चित्त में स्मृति का गुण बुद्धि विषयक, प्रियता का गुण मन विषयक और अपने वैशिष्ट्य के प्रति श्रेष्ठता का भाव ही अहंकार है। चित्त में भगवत्स्मृति शेष रहे, शेष सब विस्मृत हो जाए, यह स्थिति कृपा विषयक है। योग से चित्त को निरुद्ध तो किया जा सकता है, पर साधना और प्रयास से उसे संभाले रहना होगा। तब प्रयास में कर्तृत्व वृत्ति से बच पाना कठिन है, पर वही सिद्धि जब कृपा से प्राप्त होती है, तब साधक सिद्धि के सत्व, रज और तम फल को तिनके के समान तोड़कर छोड़ देता है। मैं कुछ करने वाला नहीं हूं, जो मिला है वह प्रभु कृपा से प्राप्त है।

सूक्ष्म सूत्र को समझने के लिए सत्संग की है आवश्यकता

सब लोग हमसे श्रेष्ठ हैं, यही सत्संग का फल है। सत्संग के बिना जीवन और व्यवहार में भक्ति की गंगा, कर्म की यमुना और ज्ञान की सरस्वती का प्रवाह संभव नहीं है। इनके संगम के अभाव में हमारे विचार पक्ष का प्रयोग जब विचार जीवन में किया जाएगा, तब जीवन की प्रयोगशाला में असफल हो जाएगा। वह भगवान के चरित्र समुद्र में जाकर अपनी परिपूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकेगा। विचार, भावना तथा कर्म तीनों का संगम ही व्यक्ति को विराट समुद्र बनाता है। तब समाज कल्याण की भावना के बादल आकर समुद्र के जल को मीठा कर उसका वितरण समाज में करते हैं। इसी सूक्ष्म सूत्र को समझने के लिए सत्संग की आवश्यकता है।

बिनु सतसंग बिबेक न होई।

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

इसके लिए सर्वप्रथम जीवन में मुदिता-प्रसन्नता का होना आवश्यक है। हृदय में मांगलिक विचारों का प्रादुर्भाव भी होना परमावश्यक है। यह केवल सत्संग से ही संभव है, क्योंकि संसार की रचना में तो बिडंबना ही बिडंबना है। ऐसा विवेक तो केवल भगवान और भगवान की कृपा से ही संभव हो सकता है कि हम उस अपरिभाषित, अप्रत्याशित तथा विपरीत परिस्थितियों में भी इस दुर्गम भवसागर से पार हो जाएं। यह कृपासाध्य साधन है। अपनी निस्साधनता की अनुभूति और भगवान के अनंत सामर्थ्य पर विश्वास ही इसका प्रमुख उपादान है, किंतु यह संभव तब ही हो पाता है, जब भगवान ही इस प्रकार की मति कर दें।

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अस बिबेक जब देइ बिधाता।

तब तजि दोष गुनहिं मनु राता।।

उसका कारण यह है कि यदि चाहें कि सारी सृष्टि दोष रहित हो जाए और वह हमारे अनुसार चले, तब तो व्यक्ति कभी किसी लक्ष्य को कभी प्राप्त कर ही नहीं सकेगा। क्योंकि

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।।

संत लोग इस गुण-दोषमयी सृष्टि में से गुण को स्वीकार कर लेते हैं और दोष का त्याग कर देते हैं। यदि हम दूसरों के दोष देखकर स्वयं दोषरहित होने का संकल्प करें, तब तो दोष दर्शन भी गुण हो जाएगा। किसी में गुण देखकर हम उन गुणों को अपने जीवन में ले आएं तो गुण दर्शन की भी सार्थकता है। पर यदि किसी सामने वाले में गुण देखकर उससे राग करने लगें और दोष देखकर उससे द्वेष करने लगें तो न तो हमें दोष देखने का कोई लाभ हुआ और न ही गुण देखने का। हम स्वयं ही अपने ही घर को जिस ओर से देखते हैं, वहां से वह भिन्न दिखाई देता है। यह भिन्नता और विपरीतता वास्तविक नहीं है। यह दिशा और दृष्टि सापेक्ष है।

संसार और वस्तुत: हम जहां पर जिस मन:स्थिति में बैठे हैं, भगवान और भक्त हमें वैसे ही दिखाई देंगे।हमारे घर में देखें। एक दिशा से धूप आ रही है, दूसरी ऋतु में उस दिशा से धूप नहीं आती। काल, देश, व्यक्ति की इस विषमता को तो हमें जानना ही होगा। गोस्वामी तुलसीदास जी और भगवान श्रीराम रूढ़िवादिता, पोंगापंथी, गुटबंदी विचारधारा को न मानकर किसी भी व्यक्ति, स्थान, ऋतु, फल, धान्य, पशु, पक्षी, ऋतु, कुऋतु का बहिष्कार कदापि नहीं करते हैं, क्योंकि यह तो विधि प्रपंच है। वह कभी मिट नहीं सकता। संसार में रहकर हमें दुख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, जाति-कुजाति, दानव-देव, ऊंचा-नीचा, माया-ब्रह्म, ईश्वर-जीव, काशी-मगध, स्वर्ग-नरक, अनुराग-विराग, इन गुण-दोषों का विभाग करना सीखना होगा। हम संसार से प्रतिकूलता को मिटाने चलेंगे तो मानसिक रोगी हो जाएंगे, क्योंकि विपरीत परिस्थिति को कभी नकारा नहीं जा सकता। उपाय केवल एक है कि "संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार। सद् रूप दूध को स्वीकार कर लीजिए और असद् रूप पानी-विकार को निकालकर उससे बच जाइए।"

भगवान ने रावण के भाई विभीषण को निर्द्वंद्व होकर स्वीकार किया। सुग्रीव से कह दिया कि हमें विभीषण को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है। संकोच तो अपने अभाव को सिद्ध करने वाली वृत्ति है। भगवान कहते हैं कि यदि भेद लेने के लिए रावण ने भेजा है या वह भय के कारण शरण में आया है, तब भी मेरे तो अवतार का विरद ही यही है कि मैं अपने शरणागत भक्त को प्राण की भांति अपने पास रखता हूं। विभीषण को हमारे पास ले आओ।

उभय भांति तेहि आनहु हंसि कह कृपानिकेत।

जय कृपालु कहि कपि चले अंगद हनू समेत।।

भगवान का ऐसा कोई भेद ही नहीं है कि उन्हें लगे कि कोई हमारा भेद न जान जाए। उलटे, ईश्वर तो चाहता है कि मेरा कोई भेद जान ले। शरणागत वत्सलता ही उसका भेद, स्वभाव और प्रभाव है। भगवान ने तो विभीषण से यहां तक कह दिया कि लोग भले ही मेरे अवतार के कोई भी कारण बताते हों, पर विभीषण! तुम जैसे संतों के लिए ही मैं अवतार लेता हूं, शरीर धारण करता हूं।

तुम सारिखे संत प्रिय मोरे। धरौं देह नहिं आन निहोरे।।

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

विवेक का ज्ञान सत्संग से होता है

इसी विवेक का ज्ञान सत्संग से होता है। सत्संग का अर्थ सांसारिक सिद्धि और प्रसिद्ध की प्राप्ति होती ही नहीं है। वह तो हमारी चित्त वृत्ति पर निर्भर करता है कि हम स्वयं कहां है? संत का संग तो सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा...होता है। गोस्वामी जी ने स्पष्ट कहा है कि ,

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहां जेहि पाई।।

सो जानब सत्संग परभाऊ। लोकहुं बेद न आन उपाऊ॥

बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई, इन पांच वस्तुओं को यदि किसी ने पाया है तो वह सत्संग के परिणाम स्वरूप ही पाया है। संसार में सत्संग के बिना जो प्राप्ति होती है, वह बाह्य दृष्टि से भले ही प्राप्ति लगे, पर वही प्राप्ति का मिथ्या सुख ही आगे जाकर साधक को दिग्भ्रमित कर देता है। इसीलिए संत के साथ की बात भगवान ने शबरी की नवधाभक्ति के ज्ञानोपदेश से उनकी स्तुति करते हुए कहा कि

भगति हीन नर सोहइ कैसा।

बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।

सबमें एक मात्र ब्रह्म को ही देखें

मेरी भक्ति के बिना किसी भी व्यक्ति के जीवन में गुण भी अवगुण रूप में ही गिने जाते हैं। इस प्रकार अपने अनुज लक्ष्मण को ज्ञान, भक्ति, वैराग्य का उपदेश देते हुए सत्संग में भगवान कहते हैं कि लक्ष्मण! ज्ञानी वह है, जिसके अंदर ज्ञान का फल भक्ति प्राप्ति की जगह स्वयं अपने आप को ज्ञानी कहलाकर दूसरों से सम्मान पाने की इच्छा न हो। सबमें एक मात्र ब्रह्म को ही देखे। कहते हैं कि वास्तविक वैराग्यवान वह है, जिसको संसार की उपलब्धियों से तो वैराग्य हो जाए और भगवान से अनुराग हो जाए। वस्तुत: वैराग्य शब्द ही संसार विषयक है और अनुराग ईश्वर विषयक। सिद्धियों को तिनके के समान तोड़कर त्याग देना चाहिए। यही वैराग्य है और भगवान को पकड़ लेना चाहिए, यही अनुराग है। जिन सिद्धियों को संसार सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है कदाचित वे ही सिद्धियां साधक को महत्वहीन बना देती हैं। महत्व तो केवल भगवान और भक्त का ही होता है।

सिद्धियां प्रयासजन्य साधनों का परिणाम होने के कारण अल्पायु और मिथ्या होती हैं। सिद्धियां तात्कालिक होती हैं और कृपा सार्वकालिक होती है। कृपा के इसी सिद्धांत को जान लेना ही सत्संग है। जो नवधा भक्ति में प्रथम है, वह संतों के संग से ही मिलता है। सत्संग का फल ज्ञान का दीपक जल जाना है। पर ये सिद्धियां साधक के जीवन में ज्ञान के दीपक को या तो जलने नहीं देती हैं या फिर जलते दीपक को बुझा देती हैं। वास्तविक सत्संगी और वैराग्यवान तो वह है, जो सिद्धियों को तिनके के समान जानकर छोड़ देता है।

शबरी जी वह सिद्ध भक्ति हैं, जिसमें भक्ति का फल केवल भक्ति प्राप्ति ही होता है। स्वयं ही अपनी खोई हुई पत्नी का पता पूछ रहे श्रीराम को जो ईश्वर माने, यह तभी संभव है जब बुद्धि सत्संगी हो। शबरी जी ने अपने गुरुदेव सरभंग ऋषि की जीवन भर सेवा की, उसी का फल था कि उन्हें परब्रह्म परमात्मा ईश्वर राम के रूप में विरही और आर्त रूप में दिखाई दे रहा था। शबरी जी ने भगवान से कहा कि मैं आपकी भक्ति कैसे करूं, क्योंकि मैं तो अधम हूं...अधम हूं... अधम हूं।

अधम ते अधम अधम अति नारी।

तिन्ह महं मैं मतिमंद अघारी।।

भगवान ने शबरी जी की जाति की, नारी शरीर की और ज्ञान के अभाव की अधमता को अस्वीकार करके शबरी जी में भक्ति की धन्यता देखी और उन्होंने उनको अतिशय प्रिय कहकर उनको धन्य कर दिया। यही था सत् का संग, सत्संग।

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