धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं

जिस प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव हो जाता है,उसी प्रकार धर्म, अध्यात्म, आस्था भक्ति योग व तत्वज्ञान के बगैर यह देश अस्तित्वहीन हो जाएगा।

By Preeti jhaEdited By: Publish:Sat, 18 Mar 2017 10:35 AM (IST) Updated:Sat, 18 Mar 2017 10:43 AM (IST)
धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं
धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं

 धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं। जिस प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार

धर्म, अध्यात्म, आस्था भक्ति योग व तत्वज्ञान के बगैर यह देश अस्तित्वहीन हो जाएगा। भारत पूरे विश्व में गुरु के रूप में प्रतिष्ठित है। विश्व को ज्ञान, वैराग्य की शिक्षा देना, सत्य के मार्ग का अनुगामी बनाना भारत का ही कार्य रहा है। वर्तमान जीवन-शैली में पदार्थ विज्ञान ने तमाम भौतिक संसाधनों को प्रस्तुत कर दिया है। आज

की आधुनिक सभ्यता संसाधनों के अधीन हो गई है। समाज में उपयोगितवाद बढ़ता चला जा रहा है। यह सत्य

है कि सांसारिक जीवनयापन के लिए भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इसे किसी भी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता।

आवश्यकता के अनुसार उपयोगी वस्तुओं की आपूर्ति तो करनी ही चाहिए, परंतु मानव जीवन को अत्याधिक इंद्रिय-पोषण बना दिया जाना भी कदापि उचित नहीं है। तमाम भौतिक संसाधनों के ढेर के नीचे दबकर प्राप्त

उपलब्धियों के भंवर में फंसकर आज का मानव विक्षिप्त होता जा रहा है। उसकी सभ्यता, सत्यता व सरलता समाप्ति की ओर है। प्रेम रस सूख गया है और मोह रस व्याप्त होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण सत्यता के विपरीत दिशा की ओर बढ़ना है।

मौजूदा दौर में विश्व भर में मानव के पग सत्य के विपरीत दिशा में काफी आगे बढ़ गए हैं। जिसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं। ऐसे में बिना विलंब किए हुए और इस दिशा में कहीं और अधिक देर न हो जाए सत्य के मार्ग पर पुन: लौट पड़ना चाहिए। अब थोथे तर्कों का सहारा छोड़ना होगा। यह कहना कि हम जो कर रहे हैं वही ठीक है इस आग्रह को तो छोड़ना ही होगा। संसार को दिखाने के लिए धर्म और भक्ति का बाह्य आडंबर छोड़कर मर्म को समझते हुए किसी दिखावे के बगैर परमात्मा की प्राप्ति के लिए अग्रसर हो जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। उस अविनाशी पूर्णब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए मनुष्य को भक्ति व अध्यात्म का सहारा लेना ही होगा। इस मार्ग के लिए तर्क की भूमिका तो बहुत न्यून है। प्राथमिक स्तर पर तो तर्क की थोड़ी बहुत भूमिका है, परंतु आगे के मार्ग के लिए तर्क को उसी तरह छोड़ना होगा जैसे अंतरिक्ष में जाने वाला उपग्रह अपने अवयवों को मार्ग में छोड़ता चला जाता है। 

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