क्‍या कहता है गीता का ज्ञान

परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद कृत श्रीमद्भागवद्गीता यथार्थ गीता के ये अंश पढ़ कर आप समझ सकते हैं गीता के ज्ञान का मर्म।

By Molly SethEdited By: Publish:Wed, 06 Dec 2017 04:20 PM (IST) Updated:Thu, 07 Dec 2017 12:00 AM (IST)
क्‍या कहता है गीता का ज्ञान
क्‍या कहता है गीता का ज्ञान

यज्ञ का आचरण ही कर्म

गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:। यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते। 

इसका अर्थ है यज्ञ का आचरण ही कर्म है और साक्षात्कार का नाम ही ज्ञान है। इस यज्ञ का आचरण करके साक्षात्कार के साथ ज्ञान स्थित, संगदोष और आसक्ति से रहित मुक्त पुरुष के संपूर्ण कर्म भली प्रकार विलीन हो जाते हैं। वे कर्म कोई परिणाम उत्पन्न नहीं कर पाते, क्योंकि कर्मो का फल परमात्मा उनसे भिन्न नहीं रह गया। अब फल में कौन-सा फल लगेगा? इसलिए उन मुक्त पुरुषों को अपने लिए कर्म की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। फिर भी लोकसंग्रह के लिए वे कर्म करते ही हैं और करते हुए भी वे इन कर्मो में लिप्त नहीं होते है। जब करते हैं, तो लिप्त क्यों नहीं होते? 

क्‍या है ब्रह्म 

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हवि‌र्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मौव तेन गंतव्यं ब्रह्माकर्मसमाधिना।। 

इसका तात्‍पर्य है ऐसे मुक्त पुरुष का समर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म ही है अर्थात ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मारूपी कत्र्ता द्वारा जो हवन किया जाता है, वह भी ब्रह्म है। जिसके कर्म ब्रह्म का स्पर्श करके समाधिस्थ हो चुके हैं, उसमें विलय हो चुके हैं, ऐसे महापुरुष के लिए जो प्राप्त होने योग्य है वह भी ब्रह्म ही है। वह करता-धरता कुछ नहीं, केवल लोकसंग्रह के लिए कर्म में बरतता है। यह तो प्राप्तिवाले महापुरुष के लक्षण हैं। 

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