गुरु नानक देव जी के प्रकाश पर्व पर विशेष

सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी का संपूर्ण जीवन स्वयं के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए था। उन्होंने एक सफल, सच्चरित्र समाज के निर्माण की कल्पना की थी। इसके लिए उन्होंने अपने जीवन-दर्शन के जरिये लोगों को जीने का सही रास्ता दिखाया।

By Preeti jhaEdited By: Publish:Thu, 06 Nov 2014 12:50 PM (IST) Updated:Thu, 06 Nov 2014 01:02 PM (IST)
गुरु नानक देव जी के प्रकाश पर्व पर विशेष

सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी का संपूर्ण जीवन स्वयं के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए था। उन्होंने एक सफल, सच्चरित्र समाज के निर्माण की कल्पना की थी। इसके लिए उन्होंने अपने जीवन-दर्शन के जरिये लोगों को जीने का सही रास्ता दिखाया।

यदि हम उनकी जीवन गाथा पर नजर डालें, तो तमाम प्रसंग ऐसे हैं, जिनके जरिये उन्होंने लोगों को शिक्षाएं दी हैं। व्यापार के लिए पिता से मिले बीस रुपयों से भूखे साधुओं को भोजन कराकर गुरु जी ने उसे 'सच्चा सौदाÓ कहा। भाई लालो की मेहनत से कमाई रोटी को स्वीकार किया, जबकि शोषण के जोर पर धनी बने मालिक भागो के पकवानों का तिरस्कार किया। लोभी दुनीचंद को परलोक ले जाने के लिए सुई देने के बहाने उन्होंने लोगों को सब्र-संतोष का सबक सिखाया। गुरु जी के प्रेरणादायी जीवन ने अहंकारियों को साधु, ठगों को सज्जन, दुराचारियों को सदाचारी और अत्याचारियों को परोपकारी बना दिया।

गुरु नानक देव जी का कहना था - सत्य सबसे बड़ा है, परंतु सत्य का आचरण सत्य से भी बड़ा है। अहं का त्याग करके ही सत्य की पहचान हो पाती है। गुरु जी ने अकाल पुरुख (ईश्वर) के हुक्म और रजा (इच्छा) को सबसे महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार, जो प्रभु की आज्ञा और इच्छा को समझ जाता है, वही सचिआरा (सच्चा) बन पाता है। यहां तक कि जीवन-मृत्यु भी अकाल पुरुख का हुक्म है और सारा आवागमन भी परमात्मा की इच्छा पर निर्भर है। इसलिए जीवन में समरसता और सहजता के द्वारा ही सही जीवन जिया जा सकता है।

गुरु नानक देव जी ने जीवन में सद्गुणों को धारण करने पर बल दिया। गुरु जी का कथन है - सत्य, दया, संतोष, धर्म का श्रृंगार करो। अहंकार को त्याग कर विनम्रता धारण करो। विनम्रता सबसे मीठी होती है और यह सभी गुणों और अच्छाइयों का सार है। दुगरुण काया को ऐसे गला देते हैं, जैसे भ_ी सोने को गला देती है।

गुरु जी मानवीय समता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने कठोर शब्दों में जाति-प्रथा का खंडन किया। उनका कहना है - सब में एक ही ज्योति प्रकाशित है, उसके प्रकाश से ही सब में प्रकाश है। इसलिए जाति मत पूछो, बल्कि ज्योति पहचानो। ईश्वर के यहां जाति नहीं चलती। गुरु जी परिश्रम के हामी थे। उनका मानना था कि जो मेहनत करके कमाता है और बांटकर खाता है, वही सच्चे मार्ग को पहचान पाता है। अत: कर्म करो और बांटकर खाओ। मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी। उस दौर में गुरु नानक देव जी ने नारी के महत्त्व को बड़े मुखर स्वर में स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि नारी से ही जीवन के सारे कार्य-व्यवहार चलते हैं। वह जननी है.. जीवन संगिनी है..। राजाओं और महापुरुषों को जन्म देने वाली नारी बुरी कैसे हो सकती है?

एक बार गुरु जी से योगियों ने पूछा कि आप संन्यासी हैं या गृहस्थ? तो गुरु जी ने कहा -मैं गृहस्थ हूं। योगियों ने कठोरता से कहा कि जैसे नशेड़ी व्यक्ति प्रभु का ध्यान नहीं कर सकता, उसी प्रकार माया में फंसा व्यक्ति भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। गुरु जी ने उत्तर दिया - अकाल पुरुख सद्गुणों से प्राप्त होते हैं। वह चाहे संन्यासी हो या गृहस्थ। जो सद्गुण धारण करेगा, उसे ही ईश्वर मिलेंगे। 1इस प्रकार गुरु नानक देव जी का जीवन और चिंतन मानव को श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। गुरु जी की शिक्षाओं का पालन करके ही एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण किया जा सकता है।

डॉ. राजेंद्र साहिलख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी का संपूर्ण जीवन स्वयं के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए था। उन्होंने एक सफल, सच्चरित्र समाज के निर्माण की कल्पना की थी। इसके लिए उन्होंने अपने जीवन-दर्शन के जरिये लोगों को जीने का सही रास्ता दिखाया। यदि हम उनकी जीवन गाथा पर नजर डालें, तो तमाम प्रसंग ऐसे हैं, जिनके जरिये उन्होंने लोगों को शिक्षाएं दी हैं। व्यापार के लिए पिता से मिले बीस रुपयों से भूखे साधुओं को भोजन कराकर गुरु जी ने उसे 'सच्चा सौदाÓ कहा। भाई लालो की मेहनत से कमाई रोटी को स्वीकार किया, जबकि शोषण के जोर पर धनी बने मालिक भागो के पकवानों का तिरस्कार किया। लोभी दुनीचंद को परलोक ले जाने के लिए सुई देने के बहाने उन्होंने लोगों को सब्र-संतोष का सबक सिखाया। गुरु जी के प्रेरणादायी जीवन ने अहंकारियों को साधु, ठगों को सज्जन, दुराचारियों को सदाचारी और अत्याचारियों को परोपकारी बना दिया।

गुरु नानक देव जी का कहना था - सत्य सबसे बड़ा है, परंतु सत्य का आचरण सत्य से भी बड़ा है। अहं का त्याग करके ही सत्य की पहचान हो पाती है। गुरु जी ने अकाल पुरुख (ईश्वर) के हुक्म और रजा (इच्छा) को सबसे महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार, जो प्रभु की आज्ञा और इच्छा को समझ जाता है, वही सचिआरा (सच्चा) बन पाता है। यहां तक कि जीवन-मृत्यु भी अकाल पुरुख का हुक्म है और सारा आवागमन भी परमात्मा की इच्छा पर निर्भर है। इसलिए जीवन में समरसता और सहजता के द्वारा ही सही जीवन जिया जा सकता है।

गुरु नानक देव जी ने जीवन में सद्गुणों को धारण करने पर बल दिया। गुरु जी का कथन है - सत्य, दया, संतोष, धर्म का श्रृंगार करो। अहंकार को त्याग कर विनम्रता धारण करो। विनम्रता सबसे मीठी होती है और यह सभी गुणों और अच्छाइयों का सार है। दुर्गुण काया को ऐसे गला देते हैं, जैसे भ_ी सोने को गला देती है। गुरु जी मानवीय समता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने कठोर शब्दों में जाति-प्रथा का खंडन किया। उनका कहना है - सब में एक ही ज्योति प्रकाशित है, उसके प्रकाश से ही सब में प्रकाश है। इसलिए जाति मत पूछो, बल्कि ज्योति पहचानो। ईश्वर के यहां जाति नहीं चलती। गुरु जी परिश्रम के हामी थे। उनका मानना था कि जो मेहनत करके कमाता है और बांटकर खाता है, वही सच्चे मार्ग को पहचान पाता है। अत: कर्म करो और बांटकर खाओ। मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी। उस दौर में गुरु नानक देव जी ने नारी के महत्त्व को बड़े मुखर स्वर में स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि नारी से ही जीवन के सारे कार्य-व्यवहार चलते हैं। वह जननी है.. जीवन संगिनी है..। राजाओं और महापुरुषों को जन्म देने वाली नारी बुरी कैसे हो सकती है? एक बार गुरु जी से योगियों ने पूछा कि आप संन्यासी हैं या गृहस्थ? तो गुरु जी ने कहा -मैं गृहस्थ हूं। योगियों ने कठोरता से कहा कि जैसे नशेड़ी व्यक्ति प्रभु का ध्यान नहीं कर सकता, उसी प्रकार माया में फंसा व्यक्ति भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। गुरु जी ने उत्तर दिया - अकाल पुरुख सद्गुणों से प्राप्त होते हैं। वह चाहे संन्यासी हो या गृहस्थ। जो सद्गुण धारण करेगा, उसे ही ईश्वर मिलेंगे।

इस प्रकार गुरु नानक देव जी का जीवन और चिंतन मानव को श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। गुरु जी की शिक्षाओं का पालन करके ही एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण किया जा सकता है।

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