मकर संक्रांति: क्यों और क्या है इसकी महत्ता

प्राचीन काल से ही संसार में हमारी मूल पहचान के दो प्रमुख आयाम रहे हैं - कृषि-कर्म और दर्शन-संस्कृति। त्रेता-काल में मिथिला सम्राट जनक को शिशु सीता की प्राप्ति खेत में हल चलाते हुए भूमि से निकले घड़े से हुई थी, जबकि उनके दरबार में अष्टावक्र जैसे अपने समय के

By Preeti jhaEdited By: Publish:Wed, 14 Jan 2015 10:33 AM (IST) Updated:Wed, 14 Jan 2015 10:41 AM (IST)
मकर संक्रांति: क्यों और क्या है इसकी महत्ता

प्राचीन काल से ही संसार में हमारी मूल पहचान के दो प्रमुख आयाम रहे हैं - कृषि-कर्म और दर्शन-संस्कृति। त्रेता-काल में मिथिला सम्राट जनक को शिशु सीता की प्राप्ति खेत में हल चलाते हुए भूमि से निकले घड़े से हुई थी, जबकि उनके दरबार में अष्टावक्र जैसे अपने समय के सबसे बड़े दार्शनिक-चिंतक थे। द्वापर काल के श्रीकृष्ण धर्म, नीति-दर्शन से लेकर कूटनीति-चिंतन तक के सर्वोच्च प्रतीक पुरुष हैं, जबकि कृषि-यंत्र धारण करने वाले उनके भ्राता बलराम तो हलधर कहे जाते हैं।

हमारे संपूर्ण सांस्कृतिक जीवन-व्यवहार में कृषि-कर्म और दर्शन-धर्म की अनोखी जुगलबंदी हैै। मकर संक्रांति भी इसी की परिचायक है। यह सूर्य के उत्तरायण हो मकर राशि में प्रवेश और खेतों से घर पहुंचे नवान्न (नई फसल) के उत्सव का पर्व है।

पौष मास में सूर्य जब धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करता है, तो इसी क्रम में वह दक्षिणायण से उत्तरायण होता है। हमारा देश उत्तरी गोलाद्र्ध में है, इसलिए सूर्य की गति-दशा का यह परिवर्तन हमारे यहां दिन को क्रमश: बड़ा और रात के आकार को छोटा करने लगता है। दिन प्रकाश, गतिशीलता व ज्ञान का प्रतीक है, जबकि रात अंधकार, गति-बाधा और अज्ञान की। चूंकि इस दिन से सूर्य में ऊर्जा और ऊष्मा बढ़नी शुरू हो जाती है और दिन बढ़ने लगते हैं, इससे लोगों के भीतर भी ऊर्जा का संचार होता है। अभी तक ठंड से सिमटे बैठे लोग भी अपने-अपने कामों में पूरी ऊर्जा से जुट जाते हैं। अत: यह पर्व हमें ऊर्जावान बनने और कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है।

शास्त्रों के अनुसार, सूर्य के दक्षिणायण रहने का पूरा दौर देवताओं के लिए निशा-काल होता है, जबकि उत्तरायण की अवधि दिन का समय। इसीलिए मकर संक्रांति को नकारात्मकता को दूर कर सकारात्मकता में प्रवेश करने का अवसर भी माना जाता है। इस अवसर पर गंगा-यमुना और तीर्थराज प्रयाग के संगम से लेकर गंगा-सागर के महासंगम तक में स्नान-दान आदि करने का प्रावधान है। पौराणिक संदर्भ यह भी है कि भगीरथ के तप के बाद पृथ्वी पर उतरीं गंगा ने ऋषि-शाप से भस्म हुए महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों को तारने के बाद कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए इसी तिथि को सागर में प्रवेश किया था।

वहीं, महाभारत के महारण के दौरान भीष्म जब मृत्यु के मुहाने पर जा पहुंचे तो सूर्य दक्षिणायण थे, इसलिए गंगा-पुत्र ने देह-त्याग के लिए शर-शय्या पर महापीड़ा में भी रहकर दिनकर के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की और मकर संक्रांति को ही संसार से महाप्रस्थान किया था। शास्त्रों में यह भी उल्लेख है कि देवासुर संग्राम का मकर संक्रांति के दिन ही अंत हुआ था और देवताओं की विजय पताका लहरा उठी थी।

सूर्य के अंदर ऊष्मा की प्रचुरता होने से लेकर इन सभी प्रसंगों से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि नकारात्मकता का अंत करके हमें सकारात्मक ऊर्जा के प्रकाश को अपने भीतर धारण करना है। इसके लिए हमें सद्गुणों की सर्वोच्चता प्रतिष्ठापित करनी होगी। एक अन्य संदर्भ के अनुसार, सूर्य आज के ही दिन अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते हैं, इसलिए यह अवसर पिता-पुत्र के बीच के किसी भी विलगाव या मतभेद की समाप्ति और सौभाग्य का प्रतीक भी है। यानी यह सूर्य के बहाने हमारे आपसी संबंधों में ऊष्मा जगाने का भी पर्व है।

मकर संक्रांति ही एक ऐसा पर्व है, जो देश में कई भिन्न नामों से मनाया जाता है। पंजाब का पर्व लोहड़ी, बिहार-यूपी का खिचड़ी, तमिलनाडु का पोंगल या असम का माघ-बिहू, नेपाल का माघ संक्रांति या सूर्योत्तरायण कृषि संस्कृति को ही समर्पित होता है। कृषक उत्तम अन्न-प्राप्ति के लिए देवताओं का श्रद्धापूर्वक धन्यवाद करते हैं। घर के बड़े लोग स्नान-ध्यान के बाद नवान्न के रूप में चूड़ा, तिलकुट, तिल आदि का भोजन जुटाने में जुट जाते हैं, वहीं युवा पीढ़ी का हर्ष और उत्साह सुबह से ही आसमान में पतंगों की ऊंची उड़ानों व होड़ से व्यक्त होने लगता है।

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