आस्था के लिए विचारवान होना बहुत जरूरी है

मनुष्य का संपूर्ण आचार-व्यवहार उसके विचारों से निर्धारित होता है और विचारों की शक्ति पर ही जीवन का उ"वल भविष्य भी आधारित है। मनुष्य जीवन सुबह जागने पर एक नवजीवन ग्रहण करता है।

By Preeti jhaEdited By: Publish:Sat, 09 May 2015 11:12 AM (IST) Updated:Sat, 09 May 2015 11:17 AM (IST)
आस्था के लिए विचारवान होना बहुत जरूरी है
आस्था के लिए विचारवान होना बहुत जरूरी है

मनुष्य का संपूर्ण आचार-व्यवहार उसके विचारों से निर्धारित होता है और विचारों की शक्ति पर ही जीवन का उ"वल भविष्य भी आधारित है। मनुष्य जीवन सुबह जागने पर एक नवजीवन ग्रहण करता है।

अधिकांश लोग इससे अनभिज्ञ होते हैं। वे नवप्रभात के बारे में भी उतना ही सोच पाते हैं, जितना खाने-पीने आदि कार्यो के बारे में सोचते हैं। विचारों के बल पर जीवन में हर नए दिन के महत्व का जो विराट अनुभव होता है उसका मौखिक व लिखित वर्णन आधुनिक कारणों से टल रहा होता है। रात्रि में नींद में हम जीवन-आभास से अनभिज्ञ होते हैं। हां सपनों के दौरान हमारी दृष्टि में हमारी जीवन-उपस्थिति जरूर बनी रहती है।

नींद में सपने न हों तो सुबह जागने पर महसूस होता है कि जीवन नींद के अंधेरों से निकलकर जो एक नई सुबह, प्रकाश देखता है, वह कितना मूल्यवान है। विचारों पर आधारित यह प्रतीति हमें प्रतिदिन होनी चाहिए, जिससे हममें नवीन भावना भी जाग्रत होती है। इसके बाद जीवन में अद्वितीय कार्य करने के विचारों का समावेश होने लगता है। जीवन में मानव उद्देश्य क्या हो, इस पर अवश्य ही गहनता से विचार किया जाना चाहिए। ईश्वर में स'ची आस्था के लिए विचारवान होना बहुत जरूरी है। मानव के स्वभाव में विचारों का अभ्यास हो तो ईश्वरीय शक्ति का स्पर्श मिल सकता है। विचारी गई सकारात्मक जीवन अनुभूतियों को व्यवहार में लाना सबसे बड़ा कर्तव्य होना चाहिए।

प्राकृतिक स्थितियां विचारशील, सृजनशील होने में हमारी सबसे अ'छी मित्र सिद्ध हो सकती हैं। विचारशीलता प्रकृति को देखने व उसे महसूस करने, उसके ध्वनि-संकेतों को भांपकर आत्मविश्लेषण करने का साधन बनती है। इसके बाद सुख-शांति के लिए प्रकृति और मानव के बीच कुछ भी नहीं चाहिए। प्रकृति-विस्तार पर अंतर्दृष्टि फैलते ही जीवन के निर्धारित भौतिक-मानक एकाएक बेमानी लगने लगते हैं। इस दौरान हमारा हृदय विश्लेषण करने की नवऊर्जा अर्जित करता है, जिसमें अतीत का कोई विचार-विभेद आड़े नहीं आता। यह ज्ञान की स्वाभाविक अवस्था होती है, जो हमें तब मिलती है, जब हम सब भूलकर वैचारिक धरातल पर पूरी तरह सहज स्वाभाविक हो जाते हैं। मनुष्य में विचारों की असीम शक्ति है। इसे पहचानकर इसका प्रयोग और सदुपयोग करना ही मनुष्य जाति का परम कर्तव्य है।

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