व्यक्ति का जैसा स्वभाव होता उसका व्यवहार भी वैसा ही बन जाता

व्यक्ति का परम लक्ष्य है शांति और आनंद की प्राप्ति। दैनिक जीवन में साधना के द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को बदल सकते हैं। स्वस्थ जीवन के लिए सर्वप्रथम आत्मावलोकन करना होता है। स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना होगा। इस तरह से स्वयं के सही अस्तित्व का बोध होने लगता है। केवल लक्ष्य के निर्धारण से शांति और आनंद की प्राप्ति नहीं हो जाती। लक्ष्य के अनुरूप पु

By Edited By: Publish:Tue, 16 Sep 2014 11:39 AM (IST) Updated:Tue, 16 Sep 2014 11:40 AM (IST)
व्यक्ति का जैसा स्वभाव होता उसका व्यवहार भी वैसा ही बन जाता
व्यक्ति का जैसा स्वभाव होता उसका व्यवहार भी वैसा ही बन जाता

व्यक्ति का परम लक्ष्य है शांति और आनंद की प्राप्ति। दैनिक जीवन में साधना के द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को बदल सकते हैं। स्वस्थ जीवन के लिए सर्वप्रथम आत्मावलोकन करना होता है। स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना होगा। इस तरह से स्वयं के सही अस्तित्व का बोध होने लगता है।
केवल लक्ष्य के निर्धारण से शांति और आनंद की प्राप्ति नहीं हो जाती। लक्ष्य के अनुरूप पुरुषार्थ भी अपेक्षित है। पुरुषार्थ के अभाव में लक्ष्य उपलब्ध नहीं होता। आसन और प्राणायाम केवल शरीर को ठीक रखने या बीमारियों को दूर करने का ही मार्ग नहीं है, बल्कि शरीर के यंत्र को सम्यक और प्राण को सशक्त करने का साधन है। आसन-प्राणायाम के सम्यक् अभ्यास से मुद्रा प्रगट होती है। मुद्रा का संबंध भावों से है, जिसकी भावधारा निर्मल है, उसकी मुद्रा भी सुंदर बनेगी, क्योंकि मुद्रा भाव से निर्मल बनती है। मुद्रा और भाव का गहरा संबंध है, इसलिए आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के अंतर्गत एक फामरूला मापदंड के लिए निर्मित किया।
जैसी मुद्रा वैसा भाव, जैसा भाव वैसा स्नाव, जैसा स्नाव वैसा स्वभाव बन जाता है, जैसा स्वभाव वैसा व्यवहार बन जाता है। इसलिए अपनी भावधारा को निर्मल बनाने से रोग मिटता है, योग होता है और व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। योग और ध्यान साधना केवल चिकित्सा पद्धति नहीं है, यह स्वस्थ जीवन-शैली है, जिससे व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करता है। उससे परम अस्तित्व को उपलब्ध होता है।
मंत्र साधना, 'विज्ञान भैरव' पर आधारित तंत्र साधना, शक्ति साधना आदि कितनी तरह की पद्धतियां इस देश में विकसित हुईं। महापुरुषों का कथन है कि ध्यान तो जीवन जीने की एक कला है। ज्यों-ज्यों ध्यान में गहरी डुबकी लगती चली जाएगी, तो फिर किसी समय या स्थान की सीमा नहीं रह जाएगी। फिर तो उसे प्रभु की याद अहर्निश अखंड रूप से जीव पर स्वत: ही भीतर कृपा बनकर बरसेगी।
राबिया नाम की महान सूफी फकीर से किसी ने पूछा, 'मां, प्रभु को याद करने का कौन-सा समय अनुकूल है? आप किस समय प्रभु को याद करने के लिए ध्यान में बैठती हैं? राबिया यह अटपटा प्रश्न सुनकर हंस पड़ी और बोली-'क्या प्रभु को याद करने का भी कोई समय होता है? उसकी याद, उसका ध्यान ही तो मेरा जीवन है।

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