चाह कर भी राम नाम जपने वाले को नहीं मार सकते

श्रीराम के अमिट भक्त हैं हनुमानजी। उत्तर रामायण में उल्लेख मिलता है कि जब श्रीराम ने अश्वमेघ यज्ञ किया, उन्होंने देवताओं, ऋषि-मुनियों, किन्नरों, यक्षों व राजाओं को आमंत्रित किया था

By Preeti jhaEdited By: Publish:Wed, 27 Jul 2016 12:55 PM (IST) Updated:Wed, 27 Jul 2016 01:01 PM (IST)
चाह कर भी राम नाम जपने वाले को नहीं मार सकते

भगवान श्रीराम के अमिट भक्त हैं हनुमानजी। उत्तर रामायण में उल्लेख मिलता है कि जब श्रीराम ने अश्वमेघ यज्ञ किया, तब उन्होंने देवताओं, ऋषि-मुनियों, किन्नरों, यक्षों व राजाओं आदि को आमंत्रित किया था।

वहां नारद जी भी मौजूद थे। उन्होंने एक राजा को अपनी बातों से नाराज कर दिया, राजा गुस्से में था। उसने ऋषि विश्वामित्र को छोड़कर सभी को प्रणाम किया। ऋषि विश्वामित्र को यह बात ठीक नहीं लगी और फिर उन्होंने भगवान श्रीराम से कहा, 'अगर सूर्यास्त से पहले श्रीराम ने उस राजा को मृत्यु दंड नहीं दिया तो वो राम को शाप दे देंगे।'

श्रीराम यह बात सुनकर चिंतित हो गए। और उन्होंने उस राजा को दंड देने की योजना बनाई। जब यह बात उस राजा को पता चली तो वह अपनी जान बचाते हुए हनुमानजी की माता अंजनी की शरण में गया।

माता अंजनी को उस राजा ने पूरी बात कह सुनाई। तब माता अंजनी ने उस राजा को श्रीराम से रक्षा का वचन दिया। लेकिन श्रीराम उस राजा को दंड न देते तो ऋषि विश्वामित्र उन्हें शाप दे देते। इस तरह एक तरह का धर्म संकट श्रीराम के सामने उपस्थित हो गया।

अपने प्रभु को इस धर्म संकट में देख हनुमानजी ने तब एक उपाय बताया। हनुमानजी ने उस राजा से सरयू नदी के तट पर जाकर राम नाम जपने के लिए कहा। हनुमान जी स्वयं सूक्ष्म रूप में राजन के पीछे छिप गए। जब राजन को खोजते हुए श्रीराम सरयू तट पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि राजन राम-राम जप रहा है। प्रभु ने सोचा, 'ये तो भक्त है, मैं भक्त के प्राण कैसे ले लूं'।

श्री राम ने राज भवन लौटकर ऋषि विश्वामित्र से अपनी दुविधा कही। विश्वामित्र अपनी बात पर अडिग रहे और जिस पर श्रीराम को फिर से राजन के प्राण लेने हेतु सरयू तट पर लौटना पड़ा। अब श्रीराम के समक्ष भी धर्मसंकट खड़ा हो गया कि कैसे वो राम नाम जप रहे अपने ही भक्त का वध करें।

राम सोच रहे थे कि हनुमानजी को उनके साथ होना चाहिए था लेकिन हनुमानजी तो अपने ही प्रभु के विरुद्ध सूक्ष्म रूप से एक धर्मयुद्ध का संचालन कर रहे थे। हनुमानजी को यह पता था कि राम नाम जपते हु‌ए राजा को कोई भी नहीं मार सकता, स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी नहीं।

श्रीराम ने सरयू तट से लौटकर राजा को मारने हेतु जब शक्ति बाण निकाला तब हनुमानजी के कहने पर राजा राम-राम जपने लगा। राम जानते थे राम-नाम जपने वाले पर शक्तिबाण असर नहीं करता। वो असहाय होकर राजभवन लौट गए। विश्वामित्र उन्हें लौटा देखकर शाप देने को आतुर हो गए और राम को फिर सरयू तट पर जाना पड़ा।

इस बार राजा हनुमान जी के इशारे पर 'जय जय सियाराम जय जय हनुमान' गा रहा था। प्रभु श्रीराम ने सोचा कि मेरे नाम के साथ-साथ ये राजा शक्ति और भक्ति की जय बोल रहा है। ऐसे में कोई अस्त्र-शस्त्र इसे मार नहीं सकता। इस संकट को देखकर श्रीराम चिंतित हो गए।

तब ऋषि व‌शिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र को सलाह दी कि राम को इस तरह संकट में न डालें। उन्होंने कहा कि श्रीराम चाह कर भी राम नाम जपने वाले को नहीं मार सकते क्योंकि जो बल राम के नाम में है और स्वयं राम में नहीं है। परेशानी बढ़ती देख ऋषि विश्वामित्र ने राम को संभाला और अपने वचन से मुक्त कर दिया।

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