गुरु पूर्णिमा पर विशेष: जाने कौन हैं साधना व अध्यात्म के पथ प्रदर्शक

गुरु हमें निर्भय होकर सत्य पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं, हमारी चेतना जाग्रत कर साधना व अध्यात्म पथ पर अग्रसर करते हैं। कैसे यही बता रहे हैं कुछ अध्यात्मिक गुरु।

By molly.sethEdited By: Publish:Sat, 08 Jul 2017 03:11 PM (IST) Updated:Sun, 09 Jul 2017 10:06 AM (IST)
गुरु पूर्णिमा पर विशेष: जाने कौन हैं साधना व अध्यात्म के पथ प्रदर्शक
गुरु पूर्णिमा पर विशेष: जाने कौन हैं साधना व अध्यात्म के पथ प्रदर्शक

निर्भय बन जाते हैं साधक: मोरारी बापू

रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- 

बंदऊ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।

उन्होंने गुरु केचरण कमल के समान और वचन यानी वाणी को सूरज की किरणों के समान बताया है। कमल हमेशा सूरज की किरणों के साथ ही खिलता है। यानी गुरु वे हैं, जिनके चरण उनकी वाणी के साथ चलते हैं। वे जो कहते हैं, वही करते हैं। कमल की तरह चरण होने का एक अर्थ यह भी है कि गुरु कमल की तरह सभी के साथ रहते हुए भी सबसे अलग रहते हैं। गुरु के पद किसी सत्ता से नहीं जुड़ते हैं। वे किसी साधन या संगठन के प्रभाव में भी नहीं आते हैं। गुरु के आश्रय में रहने वालों को भी यह सावधानी बरतनी चाहिए कि गुरु की मर्यादा न टूट जाए। मर्यादा तब टूटती है, जब किसी खास प्रयोजन या लक्ष्य से गुरु के आश्रय में जाया जाता है। गुरु के सान्निध्य में हमारी बुद्धि और विवेक बढ़ता है। गुरु समुद्र की तरह बेशुमार रत्नों के भंडार होते हैं। एक-एक कर वह कई रत्न साधक को देता चला जाता है। शिष्य या साधक को निर्भय कर देना गुरु के प्रमुख लक्षण हैं। गुरु के मिलने पर दुनियादारी का भय नहीं रहता। इतना ही नहीं, गुरु की खोज संसार की सारी खोजों को समाप्त करा देती है। गुरु को पाना ही सब कुछ पा लेना है।

 

निपुण बनाते हैं गुरु: पंडित मधु दास

गुरु पूर्णिमा के दिन ही गुरुओं के गुरु तथा वैदिक ज्ञान को संग्रहीत करने वाले वेद व्यास अवतरित हुए थे। गुरु और उनके ज्ञान के बारे में लोगों की अलग-अलग धारणाएं होती हैं। गुरु कौन हैं और उनकी योग्यता क्या है, के बारे में श्रीमद्भागवत महापुराण में विस्तार से बताया गया है। कोई भी व्यक्ति, जो सच्चे सुख की चाह रखता है, उसे आध्यात्मिक गुरु की शरण में जाना चाहिए। उस आध्यात्मिक गुरु में इतनी योग्यता जरूर होनी चाहिए कि वह धर्मग्रंथों के निष्कर्षो की विवेचना कर पाए। खुद अर्जित किए गए ज्ञान से दूसरों को लाभ दिला सके। जो भौतिक सुखों को त्यागकर देवत्व की शरण में चले जाते हैं, ऐसे लोग ही सच्चे आध्यात्मिक गुरु कहलाते हैं। सच्चे गुरु वैदिक ज्ञान के सार को समझते हैं। अपने अर्जित ज्ञान से वे दूसरों को भी निपुण बना देते हैं। वैदिक ज्ञान हमें रास्ता दिखाता है और गुरु ज्ञान को जीवन में उतारने की विधि बताते हैं। कृष्ण सर्वोच्च गुरु हैं। वे सर्वज्ञानी हैं। ईश्वर के प्रति गुरु अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। ऐसे ही गुरु के प्रति हम भी स्वयं को समर्पित करें।

गुरुनिष्ठा दिलाती है संकल्प सिद्धि: दीदी मां साध्वी ऋतंभरा

नाभा जी को बचपन से ही दृष्टि नहीं थी। रामानंदाचार्य जी के एक बड़े प्यारे शिष्य थे अग्रदास जी। एक दिन रास्ते में उन्हें बालक नाभा जी मिले। उन्होंने उनसे पूछा -'तू कौन है?'

बालक ने कहा -'यही तो मैं पूछ रहा हूं कि मैं कौन हूं?'

-'तू कहां से आया है?'

-'महात्मन, मैं भी तो यही पूछ रहा हूं कि मैं कहां से आया हूं?' बालक के प्रश्नों पर संत रीझ गए और अपने कमंडल से जल निकालकर उनके नेत्रों पर डाल दिया। कहते हैं कि बालक नाभा की नेत्र ज्योति लौट आई। बालक ने उन्हें अपना गुरु मान लिया। संपूर्ण निष्ठा से वे उनकी सेवा करते। एक दिन अग्रदास जी अपने कक्ष में प्रभु के मानस पूजन में निमग्न थे और नाभा पूर्णभक्तिभाव से कक्ष के बाहर बैठे रस्सी से चंवर डुलाकर उन्हें शीतलता प्रदान कर रहे थे। अचानक बीच समुद्र में उनका एक शिष्य, जो कि व्यापारी था, अपने जहाज सहित भयंकर तूफान में फंस गया। वह चिल्लाने लगा, 'गुरुदेव, मेरी रक्षा करें, अन्यथा मैं डूब जाऊंगा।' उसका आर्तनाद इतना प्रबल था कि उसने गुरुदेव के मन तक पहुंचकर उनकी मानस पूजा में व्यवधान उत्पन्न कर दिया। नाभा जी अचरज से गुरुदेव को देखने लगे कि वे मानस पूजा करते हुए भगवान को माला क्यों नहीं पहना पा रहे? वे समझ गए कि उनका गुरुभाई किसी समुद्री संकट में है। उन्होंने कहा, 'हे प्रभु, मेरी आपसे प्रार्थना है कि मैंने आज तक अपने गुरु की सेवा करके जितने भी पुण्य अर्जित किए, वे सब मेरे गुरुभाई को देकर उसके जीवन की रक्षा कर लें।' यह प्रार्थना करते ही समुद्री तूफान शांत हो गया। उसका जीवन और जहाज दोनों ही बच गए। इधर नाभा जोर से चिल्लाए, 'गुरुदेव, ठाकुरजी को माला पहना दीजिए, मेरा गुरुभाई अब सुरक्षित है।' गुरुदेव ने कक्ष से बाहर आकर पूछा, 'नाभा, मुझे किसने कहा था कि गुरुभाई सुरक्षित है?' नाभा ने आंखें बंद कर हाथ जोड़े सकुचाते हुए कहा, 'गुरुदेव, मैं समझ गया था कि आपकी पूजा में बाधा हो रही है। मैंने ही कहा था कि मेरा गुरुभाई सुरक्षित है।' गुरुदेव ने प्रसन्न होकर कहा, 'नाभा, तुम सारे भक्तों की कथाएं लिखो।' नाभा ने कहा, 'लेकिन गुरुदेव यह कैसे होगा?' गुरुदेव ने कहा, 'नाभा जब तुम अपनी दिव्य दृष्टि से मुझे मानस पूजा में अटकते हुए देख सकते हो, तो फिर तुम जैसे ही भक्तों का ध्यान करोगे, उनके पावन चरित्र तुम्हारी प्रज्ञा में प्रकट हो जाएंगे। तब 'भक्तमाल' जैसा महाग्रंथ नाभा जी ने रचा। जब हमारी गुरुनिष्ठा प्रबल होती है, तो फिर संकल्प सिद्धियां अपने-आप प्राप्त होने लगती हैं। ऐसे शिष्य के मन में जो संकल्प आता है, वह पूरा हो जाता है। आप कोई भी ग्रंथ स्वयं पढ़ें, तो उतना रस नहीं मिलेगा, जितना किसी संत-महापुरुष की वाणी से श्रवण करने पर मिलता है। फि र उसका स्वाद वैसा ही हो जाता है, जैसे सागर का पानी खारा हो, लेकिन वही पानी वाष्पित होकर पुन: बादलों के रूप में बरसते हुए मीठा होकर धरती को जीवन प्रदान करता है।

 

नर से नारायण बनने की यात्रा: अवधूत बाबा शिवानंद

आत्मशुद्धि के साथ-साथ चेतना का ऊपर उठना भी जरूरी है। नर से नारायण बनने की यात्रा के लिए गुरु का होना आवश्यक है। गुरु बिन गति न होत। गुरु वे हैं, जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार कर लिया है। जिसके भीतर चेतनाशक्ति जाग्रत हो गई हो। वह आवश्यक है। गुरु जब शक्तिपात्र देता है, तो उसके बाद शिष्य साधना करता है और उसके अंदर मंथन होना शुरू हो जाता है। हमारे शास्त्र में समुद्र मंथन के बारे में बताया गया है। यह हमारे भीतर की मंथन की अवस्था को ही बताता है। यह बाहर नहीं है, हमारे भीतर होता है। ये हमारी प्रवृतियों के समान हैं। एक तरफ एक कार्य करने का भाव होता है, तो दूसरी तरफ दूसरा कार्य करने का भाव होता है। भीतर का शक्तिपात्र गुरु सुमेरु बनकर अंतरात्मा का मंथन करने के लिए तैयार हो जाता है। जब मंथन होता है तो सबसे पहले हलाहल विष निकलता है। ऐसे संस्कार और विकार, जो कष्ट देने के लिए तैयार बैठे हैं, जो प्रारब्ध भोग का कारण बन बैठे हैं, उन्हें खत्म करने में गुरु ही मदद करते हैं। गुरु शक्ति ही साधना की ओर प्रेरित करती है तथा रास्ता दिखाती है। गुरु के बताए रास्ते पर चलने से ही शिवत्व को पाया जा सकता है।

 

मिलता है मुक्ति का मार्ग: सद्गुरु जग्गी वासुदेव

गुरु एक जीवित मानचित्र के समान होते हैं। हो सकता है कि आप अपनी मंजिल तक बिना मानचित्र के पहुंच जाएं, लेकिन जब अनजाने इलाके में यात्रा कर रहे हों, तो आपको नक्शे या मार्ग-दर्शन की जरूरत होगी। इसी मार्ग-दर्शन के लिए गुरु होते हैं। क्या गुरु जरूरी हैं? बिल्कुल नहीं। यदि आप अपनी मंजिल खुद हासिल करना चाहते हैं, तो आप ऐसा कर सकते हैं। हो सकता है कि इसमें आपको अनंत काल लग जाएं। आप गुरु को खोजने नहीं जाते। यदि आपकी इच्छा गहरी है। यदि आप अपने अस्तित्व की प्रकृति को न जानने के दर्द से तड़प रहे हैं, तो आपको गुरु खोजने की जरूरत नहीं होगी। वे खुद आपको खोज लेंगे, आप चाहे कहीं भी हों। गुरु तो बस एक संभावना है। कोई भी चीज या इंसान, जो आपके अंधकार को मिटाने का काम करे, वही आपका गुरु है। गुरु आपकी सभी शंकाओं के समाधान कर सकते हैं।

भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊंचा माना गया है, क्योंकि गुरु ही शिष्य को ईश्वर का बोध करा सकते हैं। दर्शन करा सकते हैं। यह एकमात्र ऐसी संस्कृति है, जहां इस बात को लेकर कोई एक मान्यता नहीं है कि ईश्वर क्या है। लोगों को अपने-अपने ईश्वर चुनने की पूरी आजादी है। इसीलिए इन्हें इष्टदेव कहा जाता है। इस संस्कृति में सबसे ऊंचा लक्ष्य ईश्वर कभी नहीं रहे, सबसे ऊंचा लक्ष्य हमेशा मुक्ति रहा है। गुरु ही मुक्ति का मार्ग दिखा सकते हैं।

इनपुट : गाजियाबाद से राज कौशिक, मीरजापुर से यादवेंद्र सिंह, नोएडा से स्मिता

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