देवशयनी एकादशी को भगवान विष्णु चार मास की योगनिद्रा में चले जाते हैं और माता लक्ष्मी रहती हैं उनकी सेवा में तत्पर...
देवशयनी एकादशी पर भगवान के शयन का आशय यह भी है कि वे विष्णु पद से पूजित होना छोड़ संसार के पालन के लिए भूमि से जीवन निकालने के लिए कृष्ण बन जाते हैं । कृष्ण भाई हलधर के साथ ग्वाल-बाल गाय-बैल के साथ खेती-किसानी में जुट जाते हैं।
नई दिल्ली, फीचर डेस्क। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि (देवशयनी) को भगवान विष्णु योग-निद्रा में चले जाते हैं, लेकिन सृष्टि के पालनकर्ता के दायित्वों को ध्यान में रखकर उनकी भार्या मां लक्ष्मी सेवाभाव में रहती हैं। भविष्यपुराण के उत्तर पर्व के 70वें अध्याय के अनुसार माता लक्ष्मी एवं प्रजापति ब्रह्मा दोनों मिलकर भगवान विष्णु की सेवा में संलग्न हो जाते है तथा चरण दबाते हैं। अलग-अलग एकादशी तिथियों के माहात्म्य के क्रम में यह भी उल्लेख है कि देवशयनी से कार्तिक शुक्ल एकादशी, जिसे देवोत्थान एकादशी कहते हैं, की अवधि तक भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं। उनका एक पैर दानवीर राजा बलि के यहां तथा एक पैर क्षीरसागर में रहता है। इस अवधि को चातुर्मास कहा गया है। खानपान के साथ अनेक संयम बताए गए है। शुभकार्य नहीं होते।शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि योगनिद्रा में भगवान के होने पर माता लक्ष्मी और प्रजापति ब्रह्मा भगवान विष्णु के उन चरणों की सेवा करते हैं, जो चरण लोकहित के लिए निरन्तर चलायमान रहते हैं। यहां तक कि युग-परिवर्तन के बावजूद भगवान विष्णु विविध रूपों में अवतार लेते हैं। इसके पीछे मन्तव्य तो यही प्रकट होता है कि लक्ष्मी के रूप में नारी-शक्ति जाग्रत रहे और ब्रह्मा के रूप में संसार में ज्ञान तथा कर्म का प्रवाह बना रहे, क्योंकि ब्रह्मा ज्ञान के देवता के साथ सृष्टि के रचयिता भी है। स्कन्दपुराण के चातुर्मास महिमा में इस बात का उल्लेख है कि भगवान विष्णु के शयन के उपरांत मां लक्ष्मी उनकी सेवा-सुश्रुषा में दत्तचित्त भाव से लगी हैं। वे शयन-मुद्रा में नहीं है। यही कारण है कि इसी चार मास में कार्तिक अमावस्या (दीपावली)पर माता लक्ष्मी का पूजन भी होता है। यही कारण है कि सफलतापूर्वक कार्य करने के एवज में माता लक्ष्मी की बुद्धि-विवेक के देवता गणेश के साथ पूजा होती है। सामाजिक एवं पारिवारिक समरसता भी परिलक्षित होती है चातुर्मास में। त्रिदेवों के परिवार का एक एक सदस्य इस अवधि में सक्रिय है। त्रिदेवों में खुद ब्रह्मा, नारायण की भार्या लक्ष्मी एवं शिवपुत्र गणेश, सब का आदर एवं सम्मान हो रहा है। इसके अतिरिक्त मांगलिक कार्यों को रोककर भूमि से खाद्यान्न के रूप में जीवन पैदा करने का काम होने लगता है। माता लक्ष्मी त्रेता में भगवान श्रीराम की भार्या हुई। इस रूप में वह भूमिजा मानी जाती है। भगवान विष्णु के साथ क्षीरसागर में रहते समय माता लक्ष्मी नीरजा थी। देवशयनी से देवोत्थान एकादशी तक माता लक्ष्मी का सीता बनकर श्रीराम के साथ वनगमन के दौरान विविध चुनौतियों एवं लोककल्याण के लिए सुख-सुविधा के त्याग के भाव को भी प्रदर्शित कर रहा है ।
खुद भगवान श्रीकृष्ण किसानों के इतने हितैषी हैं कि इसी चातुर्मास की अवधि में इंद्र के कोप से अतिवृष्टि होती है और गांव-गांव जलमग्न होने लगता है, तबाही मचने लगती है तब वे इंद्र की सत्ता को चुनौती देते है। जलप्लावन के समाधान के लिए गांव के लोगों के साथ मिलकर उसके सदुपयोग की योजना को मूर्त रूप देते हैं। निश्चित ही यह जल-संचयन की अभियांत्रिकी है। जहां भी अधिक जल होता है, वहां कृषि-कार्य के लिए बांध बनाया जाता है। बिना जल के कृषि लहलहा नहीं सकती। अतएव देवशयनी भगवान बिष्णु के पालन-पोषण के महा-अभियान का एक सार्थक कदम भी है।
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