गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए बुधवार को जरूर करें गणेश कवच का पाठ

साधक भिन्न-भिन्न तरीकों से पूजा-भक्ति कर विघ्नहर्ता को प्रसन्न करते हैं। इसके लिए साधक गणेश जी को मोदक-मेवा भी भेंट करते हैं। ऐसी मान्यता है कि गणेश की कृपा से व्यक्ति के जीवन में व्याप्त सभी दुःख और क्लेशों का अंत हो जाता है।

By Pravin KumarEdited By: Publish:Wed, 26 Jan 2022 11:12 AM (IST) Updated:Wed, 26 Jan 2022 11:12 AM (IST)
गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए बुधवार को जरूर करें गणेश कवच का पाठ
गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए बुधवार को जरूर करें गणेश कवच का पाठ

बुधवार का दिन सनातन धर्म में प्रथम पूजनीय भगवान गणेश जी को समर्पित है। इस दिन गणेश जी की पूजा-आराधना की जाती है। इसके अलावा, हर माह में कृष्ण और शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी और विनायक चतुर्थी को गणेश जी की पूजा उपासना करने का विधान है। इन दो तिथियों को व्रत और उपवास किया साधक भिन्न-भिन्न तरीकों से पूजा-भक्ति कर विघ्नहर्ता को प्रसन्न करते हैं। इसके लिए साधक गणेश जी को मोदक-मेवा भी भेंट करते हैं। ऐसी मान्यता है कि गणेश की कृपा से व्यक्ति के जीवन में व्याप्त सभी दुःख और क्लेशों का अंत हो जाता है। इसके लिए गणेश जी को विघ्नहर्ता भी कहा जाता है। अगर आप भी गणेश जी को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो प्रत्येक बुधवार को पूजा करने के समय गणेश कवच का पाठ जरूर करें। आइए जानते हैं-

गणेश कवच

संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापति:।

ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदर: स्वयम्॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोग: प्रकीर्तित:।

सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने॥

ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातुमस्तकम्।

द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदावतु॥

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति च संततं पातु लोचनम्।

तालुकं पातु विध्नेशःसंततं धरणीतले॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति च संततं पातु नासिकाम्।

ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम॥

दन्तानि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षर:॥

ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदावतु।

ॐ क्लीं ह्रीं विघन्नाशाय स्वाहा कर्ण सदावतु॥

ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदावतु।

ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदावतु॥

ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्ष:स्थलं च गम्।

करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघन्निघन्कृत्॥

प्राच्यां लम्बोदर: पातु आगन्य्यां विघन्नायक:।

दक्षिणे पातु विध्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजानन:॥

पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मज:।

कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च॥

ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्ब: पातु चो‌र्ध्वत:।

अधो गणाधिप: पातु सर्वपूज्यश्च सर्वत:॥

स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरु:॥

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।

संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम्॥

श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले।

वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज:॥

मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि।

परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसङ्कटतारणम्॥

गुरुमभ्य‌र्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु य:।

कण्ठे वा दक्षिणेबाहौ सोऽपि विष्णुर्नसंशय:॥

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।

ग्रहेन्द्रकवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥

इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम्।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥

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