आट्टुकाल देवी मंदिर के इस परिसर में बस महिलायें ही जा सकती हैं

20 फ़रवरी 2019 बुधवार को अत्तुकल देवी को समर्पित अत्तुकल पोंगल उत्सव मनाया जायेगा एेसे में चलें दक्षिण भारत के प्राचीन अत्तुकल के भगवती मंदिर की यात्रा पर।

By Molly SethEdited By: Publish:Tue, 19 Feb 2019 04:32 PM (IST) Updated:Wed, 20 Feb 2019 09:30 AM (IST)
आट्टुकाल देवी मंदिर के इस परिसर में बस महिलायें ही जा सकती हैं
आट्टुकाल देवी मंदिर के इस परिसर में बस महिलायें ही जा सकती हैं

देवी आट्टुकाल का मंदिर

केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम शहर में स्थित है आट्टुकाल भगवती का प्राचीन मंदिर। कहते हैं इन देवी के दर्शन से कलियुग के समस्त दोषों का नाश हो जाता है। ये मंदिर तिरुवनंतपुरम की दक्षिण-पूर्व दिशा में आट्टुकाल नाम के गांव में बना है। आट्टुकाल मंदिर का सबसे बड़ा आैर प्रसिद्ध उत्सव है पोंगल जो  द्रविड़ समुदाय का विशिष्ट पर्व माना जाता है। यह माघ मास में पौर्णमि नक्षत्र उदय काल पर मनाया जाता है। मंदिर में दर्शन के लिए इस पर्व पर लाखों की तादात में श्रद्घालु तिरुवनंतपुरम आते हैं। इस मंदिर को महिलाआें का सबरीमाला भी कहा जाता है।

कैसे हुर्इ मंदिर की स्थापना 

मंदिर के निर्माण से जुड़ी एक प्राचीन कथा अत्यंत प्रचलित है। कहते हैं कि आट्टुकाल गांव का मुखिया मुल्लुवीड़ परिवार हुआ करता था। एक बार इस परिवार के गृह स्वामी को स्वप्न में आट्टुकाल देवी दर्शन हुए आैर उसे जाग्रत अवस्था में भी उनकी उपस्थिति अनुभव होती रही। तब उन्होंने ही यहां पर देवी का मंदिर बनाने का निर्णय लिया। तबसे वही स्वप्न मंदिर की उत्पत्ति का आधार माना जाता है। कहते हैं कि यह देवी पतिव्रताधर्म के प्रतीक रूप में प्रसिद्घ कण्णकी का अवतार हैं।

दस दिन चलता है उत्सव

इस मंदिर में दस दिन चलने वाले अट्टुकल पोंगल के दसों दिन उत्सव मनाया जाता है। इस दौरान पूरे समय दिन में कीर्तन, भजन चलते रहते हैं और रात में मंदिर के प्रांगण में ही लोक कलाओं आैर लोक नृत्यों आदि के कार्यक्रम होते हैं, संगीत सभायें भी चलती हैं। नौंवे दिन देश की विविध जगहों से सज धज कर आये रथ, घोड़े आैर दीपों आदि का जुलूस निकलता है। जुलूस में प्रयोग किए जाने वाले ये दीपक नारियल के पत्तों आैर चमकते कागजों से सजे तख्ते पर देवी का रूप रखकर बनाये जाते हैं। हजारों की तादात में महिलायें और उन्हें सिर पर रखकर गाजे बाजों के साथ जुलूस में शामिल होती हैं।

दक्षिण का कुंभ

मंदिर में होने वाले इस उत्सव की तुलना प्रयाग के कुम्भ मेले से की जाती है। उत्सव का प्रारंभ तभी होता है, जब कण्णकी देवी के चरित्र के गायन के साथ देवी को कंकण पहनाकर बैठा दिया जाता है। उत्सव के नौ दिनों के बीच में वह सारा चरितगान पूरा गाया जाता है। जो देवी के हाथों हुए पाण्ड्य नाम के राजा के वध के वर्णन तक चलता है। इसके बाद पोंगल बनाने के लिए चूल्हे जलाये जाते हैं आैर शाम को निश्चित समय पर पुजारी पोंगल पात्रों में तीर्थजल छिड़कते हैं, आैर पुष्पवर्षा होती है। इसके बाद देवी को भोग लगा कर प्रसाद ग्रहण कर उसे माथे से लगा कर स्त्रियां वापस जाने लगती हैं।

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