साहस, श्रम पर विश्वास और निष्ठा मेरे संबल है

वंशी की कविताएं नागर अनुभूतियों का नया आयाम खोलती हैं, जिसमें निम्न और मध्यवर्ग की गहरी संवेदनाएं मौजूद हैं...

By Babita kashyapEdited By: Publish:Mon, 23 Mar 2015 12:04 PM (IST) Updated:Mon, 23 Mar 2015 12:16 PM (IST)
साहस, श्रम पर विश्वास और निष्ठा मेरे संबल है

वंशी की कविताएं नागर अनुभूतियों का नया आयाम खोलती हैं, जिसमें निम्न और मध्यवर्ग की गहरी संवेदनाएं मौजूद हैं...

बलदेव वंशी का नाम आते ही सहसा भारत के संघ लोकसेवा आयोग के गेट पर भारतीय भाषाओं को उनका हक दिलाने के लिए चलाए गए दुनिया के सबसे लंबे धरने की याद आ जाती है, जिसके लिए पुष्पेंद्र चौहान और राजकरण सिंह ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया। बलदेव वंशी इस धरने के संस्थापक-अध्यक्ष रहते हुए कई बार गिरफ्तार किए गए। धरने से वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक तथा प्रख्यात कथाकार महीप सिंह जुड़े और समय-समय पर प्रभाष जोशी, विद्यानिवास मिश्र और कमलेश्वर जैसे लेखक-पत्रकार

भी धरने पर बैठते रहे। राजनेताओं में अटलबिहारी वाजपेयी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, लालकृष्ण आडवाणी और रामविलास पासवान भी उस धरने पर बैठे थे।

कहने का मतलब यह कि बलदेव वंशी कवि-लेखक के रूप में तो प्रतिष्ठित हैं ही, भारतीय भाषाओं को उनका हक दिलाने के आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाते रहे हैं।

'दर्शकदीर्घा से', 'उपनगर में वापसी', 'अंधेरे के बावजूद', 'बगो की दुनिया', 'आत्मदान', 'कहीं कोई आवाज नहीं', 'टूटता हुआ तार', 'एक दुनिया यह भी', 'हवा में खिलखिलाती लौ', 'पानी के नीचे दहकती आग', 'खुशबू की दस्तक', 'सागर दर्शन', 'अंधेरे में राह दिखाती लौ', 'नदी पर खुलता द्वार', 'मन्यु', 'वाक्गंगा', 'इतिहास में आग', 'पत्थर तक जाग रहे हैं', 'धरती हांफ रही है', 'महाआकाश कथा', 'पूरा पाठ गलत' तथा 'चाक पर चढ़ी माटी' जैसे पंद्रह कविता संग्रहों की कविताओं के एकत्र संकलन 'कथा समग्र' से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वंशी मूलत: कवि हैं और उनका जीवन कविता को समर्पित रहा है, जिसमें स्वातंत्र्योत्तर भारत के मनुष्य की तकलीफ, संघर्ष और संवेदना को हृदयग्राही अभिव्यक्ति मिली है। ये कविताएं एक तरफ दूर-निकट इतिहास के पात्र और परिवेश उठाकर समकालीन जीवन की संभावनाएं तलाशती हैं तो दूसरी तरफ मिथकों को उठाकर उनके जरिये अपनी बात अपने तरीके से कहने की कोशिश करती हैं। यहां प्रस्तुत है उनके जीवन और साहित्य पर बलराम की वार्ता के महत्वपूर्ण अंश...

आपका 'कविता समग्र' प्रकाशित हो गया है।

'समग्र' की पहली प्रति देखकर कैसा लगा?

हम सन् 1960 के बाद की पीढ़ी के कवि हैं। सन् 2012 में प्रकाशित 'कविता समग्र' में पचास बरस के सपने, पारिवारिक तप, साधना, वेदना और यातना को समग्र रूप में देखकर बड़े गहरे में मातृवत संतृप्ति का एहसास हुआ। सहसा पहले कविता संग्रह 'दर्शक दीर्घा से' के समर्पण पृष्ठ पर छपी कविता 'नियति' के कुछ शब्द याद आ गए थे:

'दुखती हड्डियों का शहतीर उठाए/ पूरा हुजूम चुपचाप सैलाब में उतर गया/ किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा।'उस समय की यातना और समग्र सामाजिक यंत्रणा आज 'कविता समग्र' को देखते हुए कितनी संतृप्तिकारी हो सकती है, आप सहज ही उसका अनुमान लगा सकते हैं।

हिंदी की मुख्य धारा की कविता में आपको जैसा और जितना स्थान मिला, उससे संतुष्ट हैं?

हिंदी कविता की मुख्यधारा में जैसा और जितना स्थान मिला, उससे असंतोष नहीं, विक्षोभ उत्पन्न होता है, क्योंकि अब सिद्ध हो चुका है कि तथाकथित मुख्यधारा गोलबंद तिकड़मी साहित्येतर आकांक्षाओं की बुभुक्षा धारा है, जो सृजन धारा को दबाती-छलती है।

यह बुभुक्षा धारा माफियानुमा कारगुजारियों में विश्वास रखती है। इसके बरक्स हिंदी में एक मुक्त

सृजन धारा है, जिसमें स्थान पाना गर्व और संतोष की बात है। यह धारा कबीर, निराला,भवानीप्रसाद मिश्र, शमशेर, पारसनाथ सिंह से लेकर रमेशकुंतल मेघ तक निरंतर प्रवहमान है।

आपका रुझान एक ओर आधुनिक प्रगतिशील कविता की तरफ रहा तो दूसरी ओर संत कवियों

को सिर पर बिठाए हुए हैं। कविता की इतनी लंबी रेंज में किस तरह संतरण कर पाए?

आधुनिक प्रगतिशील कविता और संतों की वाणी में जरा भी अंतर नहीं है। सन् साठ के बाद हम लोग सत्ता- व्यवस्था से भ्रमभंग होने के बाद कबीर और निराला को अपना आदर्श मानने लगे, क्योंकि वे व्यवस्था के विरोधी थे। स्वाभिमानी और समतावादी संस्कृति के पहरुवे थे। विश्व स्तर पर व्यापक प्रेरणाओं के लिए हम कामू, काफ्का और सात्र्र के विचारों पर लंबी-लंबी बहसें किया करते थे। तब के कबीर-निराला के आदर्श

ही, लगता है कि बाद में मुझे व्यापक रूप से संतों के गहन मानवीय, संवेद्य और निर्भय विचारों की ओर ले गए। गौर से देखें तो पश्चिम में उभरे अस्तित्ववाद के दाएं-बाएं विचारों से बहुत पहले मध्य युग में हमारे संतों ने इन विचारों को जिया, उन्हें वाणी दी, उसके लिए जोखिम उठाए और मूल्य भी चुकाया। मैंने तीसेक बरस पहले कबीर के विचारों को अस्तित्ववाद की कसौटी पर कसकर इसे सिद्ध किया था। कबीर के साथ इसे गुरु तेगबहादुर की शहादत, संत रगाब के जीवित रहते ही वन्य जीवों के भोज्य बन जाने और उगा कुल में जन्मे बुगेशाह के खुद ही डी-क्लास होकर निम्नतम वर्ग में शामिल हो जाने में देख सकते हैं।

संत साहित्य में आपकी रुचि दलित कवियों से कहीं ज्यादा नजर आती है। इसके पीछे समकालीन दलित विमर्श का प्रभाव है या फिर यह आपकी अपनी ही कोई भीतरी प्रेरणा है?

संत साहित्य में मेरी रुचि व्यापक एवं गहन रूप में पुणे जाने के बाद हुई। इससे पूर्व अंतरराष्ट्रीय कबीर सम्मेलन की अध्यक्षता कर चुका था, जिसमें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह मुख्य अतिथि थे। संत साहित्य की खोज में मॉरीशस, बेल्जियम, हॉलैंड, इंग्लैंड और नेपाल सहित देश में हिमाचल, मेघालय, असम, महाराष्ट्र, गोआ, पश्चिम बंग, गुजरात, राजस्थान और पंजाब की लंबी-लंबी सृजन-यात्राएं कीं। मेरा नाम गुरुग्रंथ साहिब में से बाबू लेकर 'ब' अक्षर से बलदेव रखा गया। यह तो स्पष्ट ही है कि गुरुग्रंथ साहिब में मुस्लिम, वैष्णव और सिख गुरुओं-संतों की वाणियां संकलित हैं। मेरे पिता हर रोज गुरुद्वारे में बैठकर गुरुग्रंथ साहिब का पाठ करते और हमारे साथ मिलकर गुरु पर्व मनाया करते थे। जहां तक दलित लेखकों का प्रश्न है, मेरे ख्याल में वे अभी भी भटके हुए हैं। उनका दलित विमर्श अपने लिए कोई सुनिश्चित दर्शन निर्धारित नहीं कर पाया। सो, मुझ पर दलित विमर्श के प्रभाव का प्रश्न ही नहीं उठता। हां, समाज के एक बड़े समुदाय के प्रति उच्चवर्ग की ओर से अतीत में और

आज भी किए जा रहे अमानवीय व्यवहार के खिलाफ हूं। मेरे नाटक में एक धर्माचार्य ने दलितों से अतीत में किए गए अनाचारों-अत्याचारों के लिए क्षमा मांगी है।

मैं मानता हूं कि दलितों (नारियों को भी) पिछले युगों में वेद ज्ञान से वंचित कर दिया गया था। वेद ज्ञान, आत्म ज्ञान है। इसके अभाव में मनुष्य पशुतुल्य हो जाता है। अत: दलितों और समूची नारी जाति का उद्धार वेद ज्ञान को उपलब्ध करने-कराने से ही होगा।

जिस मुख्य अधिकार के छिनने से इनकी यह दलित दशा हुई, उसी को सबसे पहले क्यों न प्राप्त किया जाए। फिर 'वेद' किसी जाति विशेष की बपौती नहीं, वह तो ऋषियों का ग्रहीत ज्ञान है। संत साहित्य मेरे मन की आत्मीय तड़प और पीड़ा है। देश के संतों पर मेरी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस दिशा में किसी भी भारतीय भाषा में मेरा यह प्रयास, संभवत: पहला ही है।

जीवन में जो मिला, उससे कितने संतुष्ट हैं?

उम्दा फलों वाले वृक्ष के बारे में कहा जाता है कि अन्यों की अपेक्षा देर में फलता है। मैं अपने लिए ऐसा ही मानता हूं। जीवन में जो अच्छा घटित हो रहा है, फल रहा है, वह उस जीवन के उत्तराद्र्ध में ही है, अन्यथा और कोई पैमाना नहीं। निम्न मध्य वर्गीय परिवार में जन्म लेकर भारत-विभाजन की विभीषिका झेलता हुआ साढ़े आठ बरस के बालक का शिक्षाक्रम छूट गया। हाथ से घुमाने वाली भ_ी का पंखा घुमाना, मोमबत्तियां बनाना और गैंती-फावड़ा चलाकर मिट्टी खोदना। लहंगी पर दोनों ओर बाल्टियां बांध कुएं से पानी खींचकर मजदूरों को पिलाना। बढ़ईगिरी का तीन वर्ष का डिप्लोमा। एक वर्षीय बिजली का सर्टिफिकेट

कोर्स आदि एक तरफ, तो दूसरी तरफ रात को घर पर ढिबरी की रोशनी में पढऩा। गरीबी के अंधेरे में गहरी खाई नापते ऊपर चढऩा तथा वर्तमान तक की ऊंचाई पर पहुंचना। यहां तक कोई निराश या टूटा हुआ व्यक्ति नहीं पहुंच सकता। अदम्य साहस, श्रम पर विश्वास और निष्ठा, ये ही मेरे संबल रहे। घटनाओं-दुर्घटनाओं में भी सतत आगे बढ़ते रहना, यही मंत्र रहा है।

असगर वजाहत जैसे कुछ हिंदी और चेतन भगत

जैसे कुछ अंग्रेजी लेखक देवनागरी लिपि त्यागकर हिंदी के रोमनीकरण की वकालत क्यों कर रहे हैं?

जिन लेखकों की जड़ें अपनी सृजन-भाषा में नहीं हैं, वे ही अपनी सृजन लिपि देवनागरी को छोडऩे को तत्पर होते हैं। असगर वजाहत को इसे छोडऩे में कुछ भी दर्द नहीं। ऐसों के लिए लेखन भी एक धंधा है।

चेतन भगत जैसे लेखक तो लिखते ही रोमन लिपि में हैं। उनके लिए तो फायदा ही फायदा है। हम सभी भारतीय भाषाओं को परीक्षाओं में समान अधिकार देने की मांग कर रहे हैं। इस आशय का संकल्प हमारी संसद तो दो-दो बार पारित कर चुकी है, पर सरकार ने उसे लागू एक बार भी नहीं किया।

बलदेव

69, उपकार अपार्टमेंट, मयूर विहार फेज-1, दिल्ली-91

chat bot
आपका साथी