पंजाब में होली बन जाती है होला महल्ला, रंगों में एेसे घुलता है शौर्य और पराक्रम
पंजाब में होली के रंगों से आगे शौर्य व पराक्रम का भाव स्पष्ट झलकता है। किला आनंदगढ़ में परंपरागत तरीके से होला महल्ला आयोजित किया जाता है।
जेएनएन, जालंधर। रंगों का पर्व होली जब पंजाब में मनाया जाता है तो उसमें वीरता का रंग सबसे अहम हो जाता है, इसीलिए कहा जाता है कि ‘लोकां दियां होलियां, खालसे दा होला ए’। गुरबाणी में कहा गया है, ‘होली कीनी संत सेव, रंगु लागा अत लाल देव...’ श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के ये शब्द पर्व के मर्म को बखूबी समझाते हैं।
रंगों से आगे शौर्य व पराक्रम का भाव इनमें स्पष्ट झलकता है। यहां के किला आनंदगढ़ में 15-16 मार्च की मध्यरात्रि 12 बजकर 1 मिनट पर परंपरागत तरीके से नगाड़े बजाकर होला महल्ला का आगाज किया गया। शौर्य व साहस का यही जुनून होला महल्ला के दौरान 21 मार्च तक खालसा पंथ की जन्मभूमि श्री आनंदपुर साहिब में देखने को मिलेगा। यहां हर वर्ष इस तीन दिवसीय महापर्व में न केवल प्रदेश व देश के कोने-कोने से, बल्कि विदेश से भी लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं।
श्री आनंदपुर साहिब के किला आनंदगढ़ में 15-16 मार्च की मध्यरात्रि 12 बजकर 1 मिनट पर परंपरागत तरीके से नगाड़े बजाकर होला महल्ला का आगाज करते हुए गणमान्य।
संत सिपाही श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा था, ‘चिड़ियन ते मैं बाज लड़ाऊं... सवा लाख से एक लड़ाऊं.. तबै गोबिंद सिंह नाम कहलाऊं।’ इसे सार्थक करने के लिए उन्होंने दलित-शोषित मानवता को प्रबल सैन्य-शक्ति में परिवर्तित करना शुरू कर दिया था। भले ही छठे गुरु हरगोबिंद साहिब के समय में ही सिख शस्त्रधारी बन गए थे, परंतु दशमेश पिता के काल में सिखों के सैन्यीकरण में बहुत ही तेजी आ गई थी। इसी शौर्य को युद्ध के अलावा भी प्रदर्शित करने का मौका उन्होंने अपनी लाडली फौज (निहंग सिहों) को होला महल्ला के जरिये 319 साल पहले दिया था और तभी से यह भव्य पर्व मनाया जा रहा है।
होला महल्ला का अर्थ
होला महल्ला में ‘होला’ शब्द होली का ‘खालसाई’ भाषा में बोला जाने वाला रूप है, जबकि ‘महल्ला’ अरबी के शब्द ‘मय हल्ला’ यानी ‘आक्रमण’ का क्षेत्रीय तद्भव रूप है। अर्थात होला-महल्ला का अर्थ हुआ- होली के अवसर पर आक्रमण आदि युद्ध-कौशल का अभ्यास।
होला महल्ला में एेसे शौर्य का प्रदर्शन करती है संगत।
विभिन्न आकर्षण
श्री आनंदपुर साहिब शहर की लगभग सभी इमारतें सफेद रंग की हैं, इसीलिए इस शहर को ‘व्हाइट सिटी’ भी कहा जाता है। रंगों के पर्व पर इस व्हाइट सिटी का दृष्य देखते ही बनता है क्योंकि इस दौरान खालसा का प्रतीक नीला व केसरी रंग मेले में हर ओर दिखता है और साथ ही हवा में उड़ता रंग-बिरंगा गुलाल माहौल को और आकर्षक बना देता है। गुलाल से रंगे चेहरों के अलावा नगर कीर्तन में शामिल होने वाले घोड़ों व ऊंटों को भी रंग-बिरंगे 'फुम्मनों' व झालरों से सजाया जाता है, जो मौके को और मनमोहक बना देते हैं।
भव्य नगर कीर्तन
खालसा पंथ के हर कार्य को शुरू करने से पहले नगाड़ा बजाने की परंपरा सदियों से रही है। दशमेश गुरु ने किला आनंदगढ़ साहिब में रणजीत नगाड़ा बजाकर इस रिवाज को शुरू किया था। नगाड़ा शौर्य व सतर्कता का प्रतीक है। औरंगजेब के समय में जब मुगल सेनाएं व उसके बाद अंग्रेज सेनाएं हमला करती थीं, तो नगाड़ा बजाकर सिख सेनाओं को सतर्क किया जाता था।
उस वक्त किला आनंदगढ़ साहिब सहित किला हौलगढ़ साहिब, किला तारापुर साहिब, किला लोहगढ़ साहिब व किला फतेहगढ़ साहिब के अलावा निगरान चौकी निरमोहगढ़ बूंगा साहिब में एक साथ नगाड़े गूंजा करते थे। होला महल्ला के दौरान भी नगाड़े की चोट पर ‘बोले सो निहाल’ और ‘सत श्री अकाल’ के जयकारे गूंजते हैं और तभी नगर कीर्तन की शुरूआत होती है।
इस नगर कीर्तन को महल्ला चढ़ना कहते हैं। गुरु के पांच प्यारे अरदासा सोध के आनंदपुर किले से ‘निशान साहिब’ लेकर चढ़ते हैं। साथ निहंग सिंह शस्त्र-धारण कर घोड़ों व हाथियों पर सवार होते हैं। आनंदगढ़ से चला यह नगर-कीर्तन माता जीतो जी के देहरे, किला होलगढ़ से होता हुआ ‘चरण गंगा’ पार कर मैदान में पहुंचता है।
यहां एक युद्ध अभ्यास के रूप में ‘सिख सेनाएं’ अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन करती हैैं। कहीं दो से चार घोड़ों की पीठ पर एक घुड़-सवार संतुलन व प्रतिभा का अद्भुत जौहर दिखाता है तो कहीं गतका खेलते युवा अपने हुनर व साहस से दर्शकों को दांतों तले उंगलियां दबाने पर मजबूर कर देते हैं। अजब-गजब करतबों के बीच यह पर्व एक अनोखा, अलौकिक नजारा प्रस्तुत करता है।
होला महल्ला में बच्चे भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।
विभिन्न आकर्षण
बाद दोपहर यह नगर-कीर्तन तख्त श्री केसगढ़ साहिब की ओर चलता है। यहां पहुंच कर इसकी समाप्ति होती है, दीवान सजाए जाते हैं, गुरबाणी कीर्तन होता है और अरदास होती है। आनंदपुर साहिब का होला महल्ला सिखों को शस्त्र-संचालन में प्रवीणता के लिए प्रेरित करता है और याद दिलाता है कि इनसे मानवता, देश एवं धर्म की रक्षा करनी है।
होला महल्ला की शुरूआत
गुरु गोबिंद सिंह जी ने पहला होला-महल्ला चैत्र प्रतिपदा सम्वत् 1757 यानि सन् 1700 ई. में किला होलगढ़ में मनाया था। इसमें उन्होंने सिख सेना के दो दल बनाए और उनके बीच बनावटी युद्ध करवाया। यह आयोजन होली से अगले दिन हुआ और तभी से यह परंपरा चली आ रही है। विजेता दल को दीवान में पुरस्कार-स्वरूप सिरोपा भेंट किया जाता था।
दीवान में गुरबाणी का पाठ होता और कड़ाह-प्रसाद और गुरु का लंगर वितरित किया जाता। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने होला महल्ला पर्व के माध्यम से सिखों को ‘कीरत’ के जरिए बदी पर नेकी की जीत का गुर सिखाते हुए युद्ध कौशल के प्रदर्शन को भी होली के उल्लास में शामिल कर लिया और मानवता की रक्षा की प्रेरणा भरने का पक्का प्रबंध कर दिया।
रोजाना दस क्विंटल देग
होला मोहल्ला को लेकर पंजाब ही नहीं पूरी दुनिया की संगत में उत्साह है। होला महल्ला के दिनों में तख्त श्री केसगढ़ साहिब में ही रोजाना करीब आठ से दस क्विंटल की देग (कड़ाह प्रसाद) तैयार की जाती है। तख्त श्री केसगढ़ साहिब में तड़के से ही संगतों का आगमन शुरू हो जाता है।
शरदई और सुखनिधान
गुरुद्वारा शहीदी बाग में शरदई और सुखनिधान आकर्षण का केंद्र होते हैं। यह बादाम, खसखस, इलाइची पीसकर मीठे दूध में बनाई जाती है। इसकी छबील होला महल्ला के दौरान निरंतर चलती रहती है। सुखनिधान में उपरोक्त चीजों के साथ भांग भी शामिल होती है। यह निहंग सिंहों का पसंदीदा पेय है। कहा जाता है कि जब गुरु की लाडली फौज जंग में थक कर लौटती और घायल भी होती तो यह पेय उन्हें राहत दिलाता था। तभी से इसकी परंपरा चली आ रही है।
कब क्या होगा? 19 मार्च : रात दस बजे से अमृत काल तीन बजे तक तख्त श्री केसगढ़ साहिब में बसंत कीर्तन दरबार होगा। 20 मार्च: रात नौ बजे से अमृत काल एक बजे तक श्री केसगढ़ साहिब में कवि समागम तथा दिन में छावनी निहंग सिंह बुड्ढा दल का गत्तका प्रदर्शन। 21 मार्च: सुबह 3 बजे से 10.45 बजे तक और रात आठ बजे से अमृत वेले तीन बजे तक तख्त श्री केसगढ़ साहिब में कीर्तन दरबार होगा। 19 मार्च से लेकर 21 मार्च तक तख्त श्री केसगढ़ साहिब में अमृत संचार (अमृतपान) करवाया जाएगा। इस बार एसजीपीसी 21 मार्च को नगर कीर्तन तथा 22 मार्च को निहंग सिंह महल्ला निकालेंगे।
(इनपुटः जालंधर से वंदना वालिया बाली, रोपड़ से अजय अग्निहोत्री व श्री आनंदपुर साहिब से बलविंदर सिंह लोदीपुर)