रामजन्मभूमि केस: सुप्रीम कोर्ट की पीठ के गठन पर टिकी हैं देश की निगाहें

मामला दो समुदायों के धार्मिक महत्व से जुड़ा होने के कारण इसकी पीठ के गठन में संतुलन रखा जाता है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 06 Jan 2019 08:37 PM (IST) Updated:Mon, 07 Jan 2019 07:21 AM (IST)
रामजन्मभूमि केस: सुप्रीम कोर्ट की पीठ के गठन पर टिकी हैं देश की निगाहें
रामजन्मभूमि केस: सुप्रीम कोर्ट की पीठ के गठन पर टिकी हैं देश की निगाहें

माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही कभी अयोध्या रामजन्मभूमि मुकदमे को जमीन का सामान्य दीवानी मुकदमा कहा हो, लेकिन देश की जनता और राजनीति के लिए हमेशा से यह मुकदमा महत्वपूर्ण रहा है। अब कोर्ट ने मुकदमा 10 जनवरी को उचित पीठ के सामने लगाने का आदेश दिया है तो निगाहें इस पर है कि नयी पीठ का स्वरूप क्या होगा। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई स्वयं पीठ में शामिल होंगे या फिर किसी और को शामिल करेंगे।

सामान्यतया धार्मिक मामलों की पीठ में रखा जाता है संतुलन

जस्टिस दीपक मिश्रा की सेवानिवृति से पहले तीन न्यायाधीश इसे सुन रहे थे। जिसमें जस्टिस मिश्रा के अलावा जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस अब्दुल नजीर शामिल थे। जस्टिस मिश्रा की सेवानिवृति के बाद नई पीठ का गठन होगा।

नयी पीठ में सिर्फ एक नये न्यायाधीश शामिल होंगे या तीनों न्यायाधीश जाएंगे बदल

सामान्य नियम के मुताबिक नयी पीठ में पुराने दो न्यायाधीश शामिल रह सकते हैं और जस्टिस मिश्रा की जगह सिर्फ तीसरे नये न्यायाधीश ही शामिल किये जाएं, लेकिन यह बाध्यता नहीं है क्योंकि मामले की मेरिट पर अभी सुनवाई शुरू नहीं हुई है और इसीलिए मुकदमा पार्ट हर्ड (पहले से सुना जा रहा) नहीं है ऐसे में मुख्य न्यायाधीश पूरी तीन सदस्यीय पीठ का नये सिरे से भी गठन कर सकते हैं।

पार्ट हर्ड मामले में पीठ के न्यायाधीश नहीं बदले जाते। पीठ के गठन का महत्व इसलिए भी है क्योंकि इसी से पता चलेगा कि यह मुकदमा अधिकतम कितना खिंच सकता है या कितनी जल्दी निपट सकता है। यह बात पीठ में शामिल न्यायाधीशों के कार्यकाल और मुकदमा सुनने की कार्यशैली पर भी निर्भर करती है। जैसे कि मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई बहस को केस के कानूनी पहलू और मुद्दों तक सीमित रखने की कार्यशैली के लिए जाने जाते हैं। वे मुकदमों को जल्दी निपटाने का स्वभाव रखते हैं। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि वे महत्वपूर्ण मामलों में पक्षकारों को नहीं सुनते। उन्होंने सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और राफेल मामले पर सभी पक्षों को विस्तार से सुना था।

पीठ गठन मुख्य न्यायाधीश के प्रशासनिक कार्यक्षेत्र में आता है। वे ही तय करते हैं कि कौन सा मामला कौन सुनेगा। वैसे सुप्रीम कोर्ट में मोटे तौर पर रोस्टर तय है कि किस श्रेणी के केस किसके पास जाएंगे। अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद सामान्य दीवानी मुकदमें की श्रेणी में आता है और रोस्टर के हिसाब से यह श्रेणी पीठों की अध्यक्षता कर रहे हर न्यायाधीश के पास है। यानि कोई भी पीठ में शामिल हो सकता है।

वैसे तो न्यायाधीश को कभी धर्म, जाति, वर्ण या प्रान्त से जोड़ कर नहीं देखा जाता और न ही इसका किसी मुकदमें की सुनवाई और फैसले पर फर्क पड़ता है, लेकिन फिर भी मामला दो समुदायों के धार्मिक महत्व से जुड़ा होने के कारण इसकी पीठ के गठन में संतुलन रखा जाता है। जहां तक संभव हो दोनों समुदाय के न्यायाधीश पीठ में शामिल रहते हैं। पुरानी पीठ में जस्टिस मिश्रा, जस्टिस भूषण और अब्दुल नजीर थे।

इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी फैसला देने वाली पीठ में दोनों धर्मो के न्यायाधीश थे। सभी ने अलग-अलग फैसला दिया था। जिसमें जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस एसयू खान ने बहुमत के फैसले में विवादित भूमि को तीन बराबर हिस्सों में बांटे जाने का आदेश दिया गया था। जबकि जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने बाकी सभी के मुकदमें खारिज करके सिर्फ भगवान रामलला के हक में फैसला सुनाया था। 

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