लोकतांत्रिक देश की न्यायिक व्यवस्था व प्रक्रिया में पारदर्शिता की पहल

भारत में न्याय व्यवस्था व न्यायिक प्रक्रिया जटिल हैं। आज तक न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता व न्याय तक पहुंच जनता के एक बड़े भाग के लिए दुर्लभ बनी हुई है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 17 Jul 2018 10:58 AM (IST) Updated:Tue, 17 Jul 2018 11:45 AM (IST)
लोकतांत्रिक देश की न्यायिक व्यवस्था व प्रक्रिया में पारदर्शिता की पहल
लोकतांत्रिक देश की न्यायिक व्यवस्था व प्रक्रिया में पारदर्शिता की पहल

[सिद्धार्थ मिश्र]। किसी भी लोकतांत्रिक देश की न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता व आम आदमी की न्याय तक पहुंच प्रत्येक नागरिक का अधिकार होता है और राज्य पर इसे सुनिश्चित करने का दायित्व है। भारत में न्याय व्यवस्था व न्यायिक प्रक्रिया जटिल हैं। आज तक न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता व न्याय तक पहुंच जनता के एक बड़े भाग के लिए दुर्लभ बनी हुई है।

सजीव प्रसारण के फायदे
हाल ही में न्याय के अनुपालन में पारदर्शिता व पहुंच लाने के लिए दायर की गई एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने राय व्यक्त की है कि सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाही का टेलीविजन पर सजीव प्रसारण किया जा सकता है और न्यायालय को इसमें कोई आपत्ति नहीं है। न्यायालय ने कहा कि यह खुली अदालत व्यवस्था का विस्तार होगा और सीधे प्रसारण के चलते जनता, वादकार व कानून के छात्रों को अदालत की कार्यवाही देखने का मौका मिलेगा।

इससे ऐसे वादी या याचिकाकर्ता को आसानी होगी जो दूरदराज स्थानों पर रहने के कारण सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाही में उपस्थित नहीं रह पाते। इस व्यवस्था से वे भी कार्यवाही को सीधे देख पाएंगे और अपने वकील के प्रदर्शन को परख पाएंगे। इससे तमिलनाडु और केरल जैसे दूरस्थ राज्यों के वादकारों को केवल एक दिन की सुनवाई के लिए दिल्ली आने की जरूरत भी नहीं होगी।

इस मुद्दे पर सरकार का पक्ष रखते हुए अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि राज्यसभा व लोकसभा चैनलों की तरह सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी एक चैनल प्रारंभ किया जा सकता है। इससे कोर्ट रूम में वकीलों के व्यवहार पर प्रभाव पड़ेगा व समस्त देश के कार्यवाही देखे जाने से वकीलों द्वारा कार्यवाही में विघ्न डालने, शोरशराबा करने व व्यर्थ तारीख लेने में कमी आएगी और अदालतों में वातावरण इंग्लैंड के न्यायालयों जैसा संजीदा हो जाएगा। हालांकि राष्ट्रीय सुरक्षा, घरेलू झगड़े व दुष्कर्म के मामलों के सीधे प्रसारण पर उनकी शंका है कि इन मामलों के सीधे प्रसारण से न्याय प्रभावित होने और निजता के मौलिक अधिकारों के हनन की संभावना है। अब कोर्ट ने सरकार को अदालत की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के संबंध में दिशानिर्देश बनाने के लिए कहा है।

कहां हो सकती है समस्या
यह निश्चित ही स्वागत योग्य है कि अदालतों में होने वाली न्यायिक कार्यवाही समस्त जनता तक पहुंचे व जनता यह जान सके कि किस वाद में न्यायालय के समक्ष क्या प्रश्न थे और वकीलों ने उस बारे में कौन से तर्क दिए व न्यायालय ने उस पर क्या निर्णय दिया। इससे न्यायालयों के काम में न केवल पारदर्शिता आएगी, बल्कि जनता का न्याय व्यवस्था में विश्वास बढ़ेगा व जनता कानूनी मामलों की जानकारी पा कर विभिन्न मामलों में अपने विचार बना सकेगी। भारत में जनता को सूचना का अधिकार प्राप्त है और अन्य मामलों के अतिरिक्त संवैधानिक व राष्ट्रीय महत्व के मामलों का सीधा प्रसारण किए जाने से इस अधिकार का अनुपालन सुनिश्चित होगा, परंतु एक अन्य दृष्टिकोण से यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि न्यायिक कार्यवाही के सीधे प्रसारण का न्याय व्यवस्था व समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा और भारत की परिस्थितियों में क्या सीधा प्रसारण उचित है। यदि यह व्यवस्था सर्वोच्च न्यायालय पर लागू हो जाती है तो क्या इसको राज्यों में उच्च न्यायालयों व जिला या जनपद स्तरीय अदालतों पर भी लागू किया जाना चाहिए।

मुद्दे अदालतों में तय होते हैं जहां न्यायाधीश एक निष्पक्ष पंच की भूमिका में पक्षकारों को सुनकर तथ्यों व कानून के अनुसार अपना निर्णय देते हैं। इसलिए यह आकलन जरूरी है कि क्या कोर्ट की कार्यवाही के सीधे प्रसारण का न्यायाधीशों या उनके निर्णयों पर विपरीत प्रभाव होगा। ऐसे मामलों के मीडिया में आने की संभावना भी है जिससे अनेक मामलों में न्यायाधीश अपने न्यायिक विवेक से कार्य करने में असमर्थ महसूस कर सकते हैं व उनकी निष्पक्षता, निर्णय प्रभावित हो सकते हैं। इंग्लैंड सहित अनेक अन्य देशों में न्यायिक कार्यवाही के सीधे प्रसारण की व्यवस्था पहले से ही मौजूद है और वहां इस व्यवस्था के प्रभाव का अध्ययन व परीक्षण किए जाने की आवश्यकता है।

आसान नहीं न्याय तक पहुंच
न्याय तक पहुंच अवधारणा के दो महत्वपूर्ण तत्वों में प्रथम है विधायन पर आधारित अधिकार युक्त कुशल कानूनी व्यवस्था तथा दूसरा, ऐसी उपयोगी व पहुंच योग्य न्यायिक उपचार व्यवस्था जो जनता को आसानी से उपलब्ध हो। भारतीय संविधान में जनता को न्यायिक पहुंच की गारंटी प्राप्त है। अनुच्छेद 39(अ) के अनुसार राज्य ऐसी विधिक व्यवस्था सुनिश्चित करे जो सामान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा दे और उपयुक्त विधायन व योजनाओं द्वारा मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करे जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई नागरिक आर्थिक या अन्य किसी अक्षमता के कारण न्याय प्राप्ति के अवसर से वंचित न रह जाए। अनेक अंतरराष्ट्रीय संधियों में न्यायिक पहुंच को मौलिक अधिकार माना गया है। यहां तक की भारत में संविधान समीक्षा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में न्यायिक पहुंच को मौलिक अधिकार का दर्जा देने की सिफारिश की थी, परंतु यह अभी तक संभव नहीं हो पाया है।

कानूनी, मौलिक व मानव अधिकारों व खासकर गरीब व वंचित वर्ग के अधिकारों को पहचान कर उनकी सुरक्षा करना न्यायिक पहुंच के अधिकार की अवधारणा का मुख्य अवयव है। न्यायिक पहुंच के लिए प्रमुख तौर पर एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत है जिसमें सिविल व आपराधिक न्याय हेतु उपयुक्त कानूनी उपचार उपलब्ध हो। एक कुशल न्यायिक व्यवस्था का अभिन्न भाग होने के कारण न्यायिक पहुंच सुनिश्चित करने में न्यायपालिका की अहम भूमिका है।

गौरतलब है कि भारत अनेक राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों से बना एक बड़ा देश है और यहां केंद्रीय स्तर पर एक सर्वोच्च न्यायालय, राज्यों में उच्च न्यायालय व जिलों व नगरों में निचले न्यायालयों की व्यवस्था है। इनके अतिरिक्त भी मामलों के निपटारे हेतु देश में असंख्य न्यायिक व अर्ध न्यायिक न्यायाधिकरण, पंचाट, आयोग व अन्य व्यवस्थाएं उपलब्ध हैं, परंतु भारत जैसे देश में न्यायिक पहुंच में अभी भी जानकारी, साधन तथा सुझाव का अभाव, मुकदमे लड़ने का आर्थिक बोझ, न्याय में विलंब व कानूनों की बहुलता जैसी अनेक बाधाएं मौजूद हैं।

इनके अतिरिक्त विधिक अधिकारों व दायित्वों की अनभिज्ञता, न्यायिक व्यवस्था संरचना व प्रक्रिया की जटिलता व अल्प विधिक साक्षरता भी देश में सर्वव्यापी है। इससे निपटने के लिए सरकार ने 1987 में विधिक सहायता अधिकार कानून बनाया था जिसके अनुसार देश में सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों, महिलाओं, बच्चों, मजदूरों तथा अपदाओं से पीड़ित लोगों को मुफ्त कानूनी सुझाव व कानूनी सेवाएं प्रदान की जा रही हैं। देश में राष्ट्रीय, राज्य व जिला स्तर पर विधिक सेवा प्राधिकरण बनाए गए हैं और सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में विधिक सेवा समिति का निर्माण किया गया है। मुख्य बात यह है कि इन समस्त प्राधिकरणों और समितियों के प्रमुख न्यायाधीश व न्यायिक अफसर होते हैं और इनके कार्यों का नियमित सामयिक आकलन होता है।

आबादी के अनुपात में जज
इसमें कोई संदेह नहीं कि पारंपरिक न्याय व्यवस्था में पिछले वर्षों में बड़े परिवर्तन और सुधार किए गए हैं और आपराधिक व महत्वपूर्ण मामलों की शीघ्र सुनवाई और निपटारे हेतु विशेष अदालतें और फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए हैं, परंतु अब भी भारत में न्याय व्यवस्था बढ़ती आबादी व मुकदमेबाजी, साधनों का अभाव, जजों की रिक्तियां और निम्न जज-जनसंख्या अनुपात की समस्या से ग्रस्त है। विधि आयोग सुझाव दे चुका है कि राज्यों को मामलों के शीघ्र निपटारे हेतु जज-जनसंख्या अनुपात को सुधारना चाहिए। जनसंख्या के अनुपात भारत में जहां वर्ष 1988 में प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या पर केवल 10.5 जज थे, वहीं वर्ष 2009 में 12-13 जज थे, वर्ष 2014 में 17.48 जज थे और वर्तमान में प्रति 10 लाख व्यक्तियों पर केवल 18 जज हैं। भारत के 29 राज्यों व 9 केंद्रशासित प्रदेशों में कुल 24 उच्च न्यायालय और उनकी 14 बेंच हैं। राज्यों में जनसंख्या के घनत्व के अनुपात में न केवल निचले न्यायालय कम हैं, बल्कि राज्यों के क्षेत्रफल के अनुपात में उच्च व अपीलीय न्यायालयों की भी कमी है। 22 करोड़ जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रदेश में केवल इलाहाबाद में उच्च न्यायालय की मुख्य बेंच है जिसकी एक मात्र बेंच लखनऊ में है।

सस्ता व सुलभ न्याय की मांग
मौलिक व मानव अधिकारों के मामलों में सुनवाई का क्षेत्राधिकार केवल राज्यों के उच्च न्यायालयों या फिर सर्वोच्च न्यायालय के पास और किसी भी मामले में अपील पर सुनवाई का क्षेत्राधिकार केवल राज्य के उच्च न्यायालय के पास होता है। व्यावहारिक तौर पर मुकदमे में एक बार हार जाने के पश्चात किसी भी वादी या अपीलकर्ता के लिए पैसे की कमी व उच्च न्यायालयों की दूरी ज्यादा होने के कारण न्यायालय की शरण में जाना बेहद कठिन कार्य है। ऐसे में न्याय तक पहुंच व न्याय प्राप्ति की आशा हास्यास्पद प्रतीत होती है। भारत में मुकदमे लड़ने में वादकारों का पैसा, समय व ऊर्जा बर्बाद होने से न सिर्फ उनका शोषण होता है, बल्कि उन्हें इतने कटु अनुभव होते हैं कि ज्यादातर लोग मुकदमा लड़ने से बेहतर अपने साथ हुए अन्याय को अपनी नियति मान कर चुप बैठने या फिर किसी और माध्यम से अपने विवादों को निपटाने में अपनी भलाई समझते हैं। भारत में अनेक सामाजिक विषमताएं हैं। जनता का एक बड़ा वर्ग गरीब, अशिक्षित, पिछड़ा व शोषित है। इनमें महिलाएं, बूढ़े व बच्चे सम्मिलित हैं जिनको अपने अधिकारों व कानूनों की जानकारी नहीं है और उनके लिए जटिल कानूनी प्रक्रिया को समझना बेहद मुश्किल है।

पुलिस, प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, वकीलों की महंगी फीस, न्यायालयों में मुकदमों की संख्या व निर्णयों में विलंब के चलते न्याय पाना एक स्वप्न जैसा है। भारत में एक लोकोक्ति प्रचलित है कि मुकदमे में जीता हुआ व्यक्ति हारे हुए व्यक्ति के समान व हारा हुआ व्यक्ति मरे हुए व्यक्ति के समान हो जाता है। जाहिर है किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्याय सस्ता, सरल व सुलभ होना चाहिए और राज्य को इसके लिए निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए ताकि न्याय प्रत्येक नागरिक तक पहुंचे और यह केवल अमीर और प्रभावशाली व्यक्तियों तक सिमटकर न रह जाए।

कानून का उद्देश्य
देश या राज्य के न्यायिक तंत्र व कानूनों का उद्देश्य जनता के बीच के झगड़ों को सुलझाना मात्र ही नहीं है। इसका मुख्य लक्ष्य समाज से संघर्ष खत्म करना व एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनाना है जिसमें लोगों के बीच कोई विवाद न हो और लोगों को अदालत जाने की जरूरत न पड़े। संपूर्ण विधि व न्याय तंत्र का यही उद्देश्य है और कानून का निर्माण अपराधी को मात्र दंड देने के लिए नहीं, बल्कि जनता को गलत कार्य करने से रोकने के लिए होता है। जनता कानून से डरे व कानून का आदर करे और ऐसा कोई गलत कार्य न करे जिससे उन्हें कानून के समक्ष जवाबदेह होना पड़े।

कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण
प्रशंसनीय पहल है और इससे न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता बढ़ेगी व जनता की न्याय तक पहुंच का मार्ग सुगम होगा, परंतु न्याय व्यवस्था में अन्य खामियां भी हैं जिन पर गौर किए जाने की आवश्यकता है। भारत में न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता व जनता की न्याय तक पहुंच जैसे विषयों पर पूर्व में काफी काम किया गया है और सरकार व न्यायपालिका ने इस पर अनेक कदम उठाए हैं, परंतु इन पर अभी और ध्यान केंद्रित किया जाना जरूरी है।

किसी भी लोकतांत्रिक देश की न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता व आम आदमी की न्याय तक पहुंच प्रत्येक नागरिक का अधिकार होता है और राज्य पर इसे सुनिश्चित करने का दायित्व है। भारत में न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया बेहद जटिल हैं। आज भी न्याय तक पहुंच जनता के एक बड़े भाग के लिए दुर्लभ बनी हुई है। ऐसे में टेलीविजन पर कोर्ट की कार्यवाही के सजीव प्रसारण से न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता तय होने के साथ ही जनता की न्यायिक प्रक्रिया को लेकर समझ भी बढ़ेगी।
[सहायक प्रोफेसर विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय] 

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