कैसी है विडंबना, भारत में ही हर वर्ष बाढ़ और सूखे से दो-चार होते हैं लोग

केरल में आई विनाशकारी बाढ़ ने जानमाल का इतना नुकसान किया है जिससे उबरने में कई साल लग जाएंगे। वहीं देश के कुछ इलाके वर्षा की कमी से सूखे की मार झेल रहे हैं।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Sat, 18 Aug 2018 11:06 AM (IST) Updated:Sat, 18 Aug 2018 11:08 AM (IST)
कैसी है विडंबना, भारत में ही हर वर्ष बाढ़ और सूखे से दो-चार होते हैं लोग
कैसी है विडंबना, भारत में ही हर वर्ष बाढ़ और सूखे से दो-चार होते हैं लोग

निरंकार सिंह। दुनिया के कई देशों के साथ भारत भी बाढ़ और जलवायु परिवर्तन से परेशान है। इसके कारण हर साल लगभग 10 अरब डॉलर की चपत लग रही है। केरल, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, असम सहित देश के कई हिस्से जहां भारी बारिश से त्रस्त हैं, वहीं कुछ राज्य पर्याप्त वर्षा नहीं होने से परेशान हैं। केंद्रीय जल आयोग के आंकड़ों के अनुसार 1953 से 2017 के बीच भारत में बाढ़ से कुल 1,07,487 लोगों की मौत हुई है। इसमें 3,65,860 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। पर अब तक बाढ़ रोकने और नियंत्रित करने के लिए हम किसी कारगर योजना को अंजाम नहीं दे सके हैं। जब वर्षा कम होती है तो सूखा पड़ जाता है और जब अधिक तो बाढ़ आ जाती है। गंगा और उसकी अन्य सहायक नदियां ऐसे क्षेत्रों में बहती हैं जहां वर्षा मुख्यतया दक्षिण-पश्चिम मानसून के द्वारा जून से सितंबर तक होती है। बाढ़ तथा नदी के तटों का कटाव का सबसे अधिक प्रभाव ओड़िशा, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल पर पड़ता है।

बाढ़ के पीछे का कारण
उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र तथा हरियाणा के कुछ भाग में जलोत्सारण के रुकावट से पानी एकत्र तथा अधिक भर जाने के कारण बाढ़ आ जाती है। महानदी में तो ज्वार-भाटा की लहरों के कारण और भागीरथी, अजय एवं दामोदर में तट के कटाव के कारण बड़े-बड़े क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। सतलज, व्यास, चेनाब तथा झेलम में जल की अत्यधिक मात्रओं से तलछट मानसून के समय बह निकलता है। ये नदियां अक्सर अपना रास्ता बदल देती हैं जो नए क्षेत्रों में बाढ़ और तबाही का कारण बनता है। लेकिन अब कम वर्षा वाले राज्यों गुजरात और राजस्थान में भी बाढ़ आने लगी है। यह जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमारी नई विकास नीतियों और बड़े-बड़े बांधों का नतीजा है। इसका सबसे अधिक खामियाजा हमारे गांव के किसानों और ग्रामीणों को भोगना पड़ता है। कहीं तटबंध टूटने से बाढ़ आती है तो कहीं बांधों में दरार पड़ जाने से बहुत सा इलाका जलमग्न हो जाता है। बाढ़ के प्राकृतिक कारण तो हमेशा से रहे हैं लेकिन विकास की विसंगतियों से भी यह समस्या गहरायी है।

जटिल होती समस्‍या
अब तक बाढ़ रोकने के जितने उपाय किए गए हैं उनसे यह समस्या और जटिल हो गई है। आधे-अधूरे संकल्पों और न्यस्त स्वार्थो के कारण हम बाढ़ों के विस्तार को रोकने में तो असफल रहे हैं, बल्कि बाढ़ से होने वाली क्षति को भी कम करने में विफल रहे हैं। देश में विशेषरूप से बिहार, झारखंड और असम ऐसे तीन राज्य हैं जहां हर वर्ष बाढ़ से सबसे अधिक क्षति पहुंचती है तो उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल को हर दूसरे-तीसरे वर्ष बाढ़ से भारी क्षति होती है। लेकिन इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया और न तो इसकी रोकथाम के लिए कोई स्थायी उपाय ही किए गए। भारी जन और धन की क्षति होते हुए भी सरकार और राजनैतिक दल इस गंभीर सामाजिक विपदा के प्रति उदासीन रहे हैं।

शरणार्थी भी बने वजह
केंद्र एवं राज्यों के सहयोग से 4,000 किमी का जो तटबंध बनाया गया था उसका आरंभ में अच्छा परिणाम रहा लेकिन बाद में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से शरणार्थी भागकर नदियों के क्षेत्र में आ गए। इन शरणार्थियों ने वहां के हरे-भरे क्षेत्रों में से पेड़-पौधे काट कर साफ कर दिए। इसके बाद भारी वर्षा के कारण मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए जमीन पर कोई चीज नहीं रही। इससे नदियों के किनारे कटने लगे और आसपास का क्षेत्र अब फिर बाढ़ की समस्या से जूझ रहा है। ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से असम के कई जिलों में भी भीषण क्षति पहुंची है। बांग्लादेश के बाद भारत ही दुनिया का सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित देश है। देश की लगभग चार करोड़ हेक्टेयर जमीन बाढ़ प्रभावित है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में हर साल बाढ़ से औसतन 1,250 लोग मरते हैं। संपत्ति की हानि का मूल्य लगभग 600 अरब रुपये प्रतिवर्ष आंका गया है।

एक दूसरे से जुड़े हैं बाढ़ और सूखा
वास्तव में बाढ़ और सूखे की समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हैं। इसलिए इनका समाधान भी जल प्रबंधन की कारगर और बेहतर योजनाएं बनाकर एक साथ किया जा सकता है। राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम के अंर्तगत 150 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ की एक सीमा तक सुरक्षा की व्यवस्था की जा चुकी है। इसके लिए 12,905 किमी लंबे तटबंध 25,331 किमी लंबी नालियां तथा 4,694 गांवों को ऊंचा उठाने का कार्य किया गया है। इन कामों पर 1,442 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। पिछले 50 वर्षो में कुल मिलाकर बाढ़ पर 170 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। लेकिन अभी बहुत काम बाकी है। बाढ़ निरोध के उपायों की अधिकांश जिम्मेदारी अभी राज्यों पर ही है। केंद्र सरकार विभिन्न योजनाओं के माध्यम से राज्य को सहयोग करती है।

नदियों को कैसे करें नियंत्रित
भारत में बाढ़ की रोकथाम के बारे में सबसे अधिक कार्य वैज्ञानिक डॉ मेघनाद साहा ने किया है। उन्होंने भारत की नदियों की समस्या की व्याख्या की और बताया कि जर्मनी, अमेरिका और रूस में कैसे नदियों को नियंत्रित किया जाता है। बाढ़ नियंत्रण योजनाएं इंजीनियरिंग दृष्टि से तभी सफल हो सकती हैं जब बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों की नदियों के जलविज्ञान व स्थलाकृति संबंधी विज्ञान का गहन अध्ययन किया जाए। प्राकृतिक रूप से कई निचले स्थानों को और गहरा कर बरसाती तथा बाढ़ के पानी को एकत्र कर सूखे की समस्या भी हल की जा सकती है। बाढ़ संबंधी समस्याएं प्राय: बाढ़ के समय या उसके तत्काल बाद ही उग्र रूप से सामने आती हैं। बाढ़ खत्म होने के बाद में उस ओर यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता।

हर साल करोड़ों का नुकसान
जहां बाढ़ से हर साल नुकसान होता है वहां की समस्याओं का समाधान क्षेत्रीय आयोग तथा बाढ़ नियंत्रण बोर्डो की देखरेख में ही होना चाहिए। अक्सर यह कहा जाता है कि भूमि संरक्षण यदि उचित रूप से किया जाए तो बाढ़ की मात्र और प्रवेश में कमी हो सकती है। ऐसा कहना साधारण बाढ़ के बारे में उपयुक्त हो सकता है किंतु जहां भयावह बाढ़ आती है वहां छोटी-मोटी भूमि संरक्षण योजनाएं काम नहीं कर सकतीं। फिर भी भूमि संरक्षण एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है और हमारे देश में यह किया जाना आवश्यक है। पर बाढ़ नियंत्रण की योजनाएं गहन छानबीन के बाद शुरू की जानी चाहिए। चूंकि इससे हमारे देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई है, इसलिए बाढ़ नियंत्रण योजनाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता भी दी जानी चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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