रेवड़ियां बांटने की चुनावी रणनीति टाइम बम की तरह, फूटा तो संबंधित राज्य की अर्थव्यवस्था भरभरा कर गिर जाएगी

निष्पक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप चुनाव संपन्न हों यह सभी की जिम्मेदारी है। इस दिशा में प्रयास भी सभी को मिलकर करने होंगे। सभी की जागरूकता ही इस समस्या को समाधान की राह तक ले जा सकती है।

By Jagran NewsEdited By: Publish:Mon, 10 Oct 2022 03:23 PM (IST) Updated:Mon, 10 Oct 2022 03:23 PM (IST)
रेवड़ियां बांटने की चुनावी रणनीति टाइम बम की तरह, फूटा तो संबंधित राज्य की अर्थव्यवस्था भरभरा कर गिर जाएगी
सबको मिलकर निभानी होगी जिम्मेदारी। फाइल फोटो

एसवाई कुरैशी। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां होने वाले चुनाव मात्र चुनाव नहीं हैं, अपितु प्रबंधन का बहुत बड़ा उदाहरण हैं। इन्हें कुशलता से संपन्न कराना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में जब चुनावों में लुभावने वादों के जरिये मतदाताओं को प्रभावित करने के मामले देखने में आते हैं, तो मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या ये वादे निष्पक्ष चुनाव की राह में बाधा नहीं हैं? वस्तुत: यह प्रश्न बहुत लंबे समय से हम सभी के समक्ष है। लेकिन इसका कोई सर्वमान्य समाधान नहीं मिल पाया है।

अब चुनाव आयोग ने आदर्श आचार संहिता में संशोधन करते हुए वादों के लिए राजनीतिक दलों की जवाबदेही तय करने का प्रस्ताव दिया है। इस प्रस्ताव के बाद इस संबंध में पूरी कवायद फिर चर्चा में आ गई है। दरअसल चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव के अर्थ और प्रभाव को समझने हमें इससे जुड़े कई पहलुओं को समझना होगा। सबसे पहले बात करते हैं चुनाव आयोग के कार्यों की। चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है निष्पक्ष तरीके से बाधारहित चुनाव संपन्न कराना।

चुनाव आयोग के अधिकार

भारत जैसे विशाल देश में चुनाव संपन्न कराना अपने आप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और चुनाव आयोग बखूबी इस जिम्मेदारी को निभा रहा है। इस मामले में चुनाव आयोग के पास बहुत ज्यादा अधिकार नहीं हैं। और सच कहा जाए तो चुनाव आयोग को हर बात की जिम्मेदारी दी भी नहीं जा सकती है। अगर चुनाव आयोग हर बात की जिम्मेदारी संभालने लगेगा, तो निष्पक्ष तरीके से बाधारहित चुनाव संपन्न कराने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य प्रभावित होगा। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट स्वयं अपने एक निर्णय में कह चुका है कि राजनीतिक दलों द्वारा घोषणापत्र में किए गए वादे आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन नहीं कहे जा सकते हैं। ऐसे में चुनाव आयोग इनके संबंध में कुछ कर भी कैसे सकता है।

चुनाव आयोग के अधिकार के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि आयोग को दलों की मान्यता रद करने का अधिकार नहीं है। तब फिर यदि आयोग को लगता भी है तो वह किसी दल पर क्या कार्रवाई कर सकेगा? कुछ लोग कहते हैं कि आखिर चुनाव आयोग ने आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों को लेकर नियम बनाया, तो आज ऐसे उम्मीदवारों के आपराधिक मामले सार्वजनिक रूप से सामने आने तो लगे हैं। यह भी पूरा सच नहीं है।

सबको मिलकर निभानी होगी जिम्मेदारी

असल में सुप्रीम कोर्ट ने ही इस संबंध में निर्देश दिया था और उसी के अनुरूप चुनाव आयोग ने व्यवस्था की थी। निर्णय लेना स्वतंत्र रूप से चुनाव आयोग के लिए संभव नहीं था। वर्तमान मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से राह निकालने को कहा है, तो आयोग ने यह प्रस्ताव तैयार कर दिया। वास्तव में इस संबंध में कुछ कर पाना स्वयं राजनीतिक दलों और जनता के हाथ में ही है। पहले इस तरह की कवायद के दौरान राजनीतिक दलों ने स्पष्ट रूप से कहा था कि घोषणापत्र के माध्यम से जनता से संवाद करना उनका अधिकार है और आयोग यह नहीं तय कर सकता कि उन्हें क्या वादे करने चाहिए। स्थिति आज भी बहुत अलग नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट को इस मामले को चुनाव आयोग के पाले डालने के बजाय स्पष्ट निर्देश देना चाहिए। साथ ही राजनीतिक दलों को भी इस परिपाटी पर लगाम के लिए आगे आना चाहिए। वादे करने भी हैं, तो उन वादों को पूरा करने की रूपरेखा भी जनता से साझा करें। जनता भी जागरूकता के साथ यह कदम उठा सकती है कि जब तक कोई दल अपने वादे को पूरा करने की स्पष्ट रणनीति न बताए, उसके वादों पर भरोसा न करें। जब तक जनता स्वयं ही इन दलों से सवाल पूछना नहीं शुरू कर देती, तब तक इस परिपाटी पर लगाम लगा पाना संभव नहीं होगा।

[पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त]

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