सहज मित्र की नीति से भटकता USA, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को सैन्य मदद दिए जाने से कई सवाल हुए पैदा- एक्‍सपर्ट व्‍यू

अमेरिकी सरकार ने पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमानों को अपग्रेड करने के लिए 45 करोड़ डालर देने का निर्णय लिया है। ऐसे में यहां पर कई प्रश्न खड़े होते हैं जिनका उत्तर तलाशने का प्रयास किया जाना चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 16 Sep 2022 02:36 PM (IST) Updated:Fri, 16 Sep 2022 02:36 PM (IST)
सहज मित्र की नीति से भटकता USA, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को सैन्य मदद दिए जाने से कई सवाल हुए पैदा- एक्‍सपर्ट व्‍यू
अमेरिकी कदम से एक बार फिर आतंकवाद की नई धुरी निर्मित हो जाएगी जिसका एक छोर इस्लामाबाद में ही होगा

डा. रहीस सिंह। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को सैन्य मदद दिए जाने के समाचार से कई सवाल पैदा हुए हैं। थोड़ा पीछे चलें तो 2018 में डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान को दी जाने वाली दो अरब डालर की सुरक्षा सहायता यह कहते हुए स्थगित कर दी थी कि पाकिस्तान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकी समूहों पर कारगर कार्रवाई करने में विफल रहा है। ऐसे में बाइडन प्रशासन को यह बताना चाहिए कि क्या अब पाकिस्तान ने तालिबान व हक्कानी नेटवर्क पर कार्रवाई पूरी कर ली है? क्या उसने पाकिस्तान की धरती से संचालित होने वाले आतंकी संगठनों का समूल नाश कर दिया है? क्या पाकिस्तान का आतंकवाद कनेक्शन अब नहीं रहा?

यदि हां तो फिर जवाहिरी का पता पाकिस्तान को कैसे मालूम था? यदि हां तो आज भी पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से लेकर दर्जनों आतंकवादी संगठन क्यों घूम रहे हैं? यदि इसके बावजूद बाइडन प्रशासन पाकिस्तान पर इस तरह से मेहरबान हो रहा है, तो वजह कोई दूसरी होगी। यह सहायता सही अर्थों में आतंकवाद की नाभि में अमृत डालने जैसा होगा। सवाल यह भी उठता है कि अमेरिका ने ऐसा निर्णय लेते समय भारतीय हितों की चिंता क्यों नहीं की, जबकि भारत अमेरिका का ‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ है।

नई ऊचाइयां प्रदान की

कुछ विश्लेषक कह सकते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान को अल जवाहिरी को मरवाने के बदले में पुरस्कार दे रहा है। लेकिन क्या इसके जरिए अमेरिकी प्रशासन यह साबित नहीं कर रहा है कि अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई की दिशा मोड़ दी है। अब उसका रवैया आक्रामक नहीं, बल्कि सहयोगात्मक है। अमेरिकी प्रशासन ने इस बात की अनदेखी कर दी कि हाल के वर्षों में भारत और अमेरिका ने ‘स्वाभाविक साझेदार’ से लेकर ‘रणनीतिक साझेदार’ और ‘मेजर डिफेंस पार्टनरशिप’ तक की यात्रा तय की है। साझेदारी के इन बढ़ते हुए कदमों को मालाबार युद्धाभ्यास सहित सेनाओं के बीच अन्य तमाम साझा अभियानों ने भारत-अमेरिका संबंधों को पुख्ता किया है। संबंधों के पुख्ता होने से ही अमेरिका ने भारत को अपनी डिफेंस तकनीक का 99 प्रतिशत प्रयुक्त करने संबंधी अधिकार भी दिया था। संबंधों के इस पुख्तापन को कई रणनीतिक मोर्चों के तमाम विषयों (विशेषकर आतंकवाद) पर इंटेलिजेंस तालमेल ने और चमकदार बनाया। इस बीच दोनों देशों के नेताओं ने इस समन्वय को नई गति प्रदान की जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की केमिस्ट्री ने नई ऊचाइयां प्रदान कीं। लेकिन जो बाइडन इस दृष्टि से रिवर्स बैक पालिसी पर चलने की कोशिश करते हुए दिख रहे हैं जो दोनों देशों के लिए फायदेमंद साबित नहीं होगा।

दो दशक में बदला भारत

वैसे यह भी हो सकता है कि जो बाइडन अभी भी भारत को पिछली सदी के अंतिम दशक वाले अपने चश्मे से देख रहे हों। शायद वे यह न जान पा रहे हों कि दुनिया ने भारत को देखने का नजरिया पूरी तरह से बदल लिया है। भारत आज एक कांटीनेंटल और मैरीटाइम पावर है। जो बाइडन शायद यह भी भूल गए हैं कि दोनों देशों का रक्षा सहयोग एक ठोस सामरिक आधार पर विकसित हुआ है। पोकरण 2 के बाद भारत-अमेरिका संबंधों की खाई चौड़ी होने के बाद बिल क्लिंटन की यात्रा के साथ दोनों देशों के बीच संबंधों का सामान्यीकरण आरंभ हुआ था। इसी दौर में अमेरिका ने भारत के सामने चार मजबूत समझौतों की पेशकश की जो अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल से आरंभ हुआ और नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में ‘2 प्लस 2 वार्ता’ के बाद ‘बेसिक एक्सचेंज एंड कोआपरेशन एग्रीमेंट फार जियो-स्पेशियल कोआपरेशन’ तक पहुंचे। यह वाजपेयी कार्यकाल के भारत-अमेरिका के ‘स्वाभाविक सहयोगी’ से मोदी-ट्रंप कार्यकाल में प्रमुख रणनीतिक साझीदार तक की यात्रा थी जिसे 21वीं सदी की दुनिया में नई विश्वव्यवस्था के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभानी थी।

ध्यान रहे कि भारत-अमेरिका संबंधों में फाउंडेशनल एग्रीमेंट्स बहुआयामी और रणनीतिक सहकार विकसित करने वाले रहे। इनमें पहला एग्रीमेंट था- ‘जनरल सिक्योरिटी आफ मिलिट्री इंफोर्मेशन एग्रीमेंट’ (जीएसएमआइए) जिस पर भारत ने 2002 में हस्ताक्षर किया था। दूसरा था- लाजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम आफ एग्रीमेंट, जिस पर 2016 में हस्ताक्षर हुए। तीसरा- कामकासा यानी कम्युनिकेशंस कांपेटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट और चौथा 'बेका' है, जिन पर 2018 और 2020 में हस्ताक्षर हुए। पहला समझौता सैन्य सूचनाओं से जुड़ा है। यह दोनों तरफ से एकत्रित खुफिया जानकारी को साझा करने की अनुमति देता है। दूसरा डिफेंस लाजिस्टिक्स के एक्सचेंज की अनुमति देता है जिसके तहत भारत और अमेरिका की सेनाएं सैन्य आपूर्ति, मरम्मत और दूसरे कार्यों के लिए एक-दूसरे के आर्मी बेस, एयर बेस और नौ-सैनिक बेस का उपयोग कर सकेंगी। इसके बाद अमेरिका ने भारत को अपना ‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ घोषित कर दिया और कहा था कि अब 99 प्रतिशत अमेरिकी रक्षा प्रौद्योगीकियों तक भारत की पहुंच होगी।

पाकिस्तान को प्रश्रय 

अब एक बार फिर अमेरिकी प्रशासन के उस निर्णय पर आते हैं जिसमें उसने पाकिस्तान फाइटर जेट एफ-16 को अपग्रेड करने का निर्णय लिया है। पाक एयरफोर्स के पास एफ-16 की तीन स्क्वाड्रन हैं। बाइडन प्रशासन चाहता है कि पाक की आतंक-निरोधी क्षमताओं में वृद्धि हो। लेकिन अमेरिका का यह निर्णय भारतीय वायुसेना के पास मौजूद राफेल की स्क्वाड्रन क्षमता को प्रभावित कर सकता है। वैसे इसके बाद पाकिस्तानी एयरफोर्स की आपरेशनल क्षमताएं बढ़ जाएंगी जो भारतीय वायुसेना के लिए चुनौती उत्पन्न कर सकती हैं। इसलिए यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि क्या अमेरिका फिर से दक्षिण एशिया में वही गेम शुरू करने की तैयारी कर रहा है जिसे उसने पिछली सदी के नौवें और दसवें दशक में खेला था? अगर ऐसा है तो इसकी वजह क्या हो सकती है? यह कि अमेरिका अफगानिस्तान में बड़ी पराजय का मुंह देख चुका है? या यह कि अब उसमें चीन से सीधे लड़ने की क्षमता नहीं बची।

कुल मिलाकर भारत और अमेरिका ऐसे पार्टनर बन रहे हैं जो इंडो-पैसिफिक के रणनीतिक समीकरणों को ही नहीं बदल सकते, बल्कि नई व्यवस्था को अपने अनुरूप बदलने में भी कामयाब हो सकते हैं। चीन की हरकतें इंडो-पैसिफिक में तनाव बढ़ा रही हैं। इसलिए इस क्षेत्र के सभी देश चाहते हैं कि चीन पर अंकुश लगे। भारत अपने रास्ते और अपने मूल्यों पर अडिग है, लेकिन क्या अमेरिका भी ऐसा ही कर रहा है? भारत आज भी उसी राह पर चल रहा है जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने क्वाड देशों के पहले वर्चुअल सम्मेलन में की थी।लेकिन क्या अमेरिकी राष्ट्रपति की इस बात पर भरोसा करना चाहिए कि भारत अमेरिका का स्वाभाविक मित्र है, वैश्विक आवश्यकताएं, विशेषकर इंडो-पैसिफिक की, आगे भी उन्हें इसके अनुपालन के लिए बाध्य करती रहेंगी।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]

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