जो दूसरों की खुशी चाहता है वह कभी स्वार्थी नहीं हो सकता

प्रसन्नता दूसरों को प्रसन्न करने में और निजी स्वार्थ को छोड़कर दूसरों को आनंद देने में निहित है।

By JagranEdited By: Publish:Thu, 22 Oct 2020 12:13 AM (IST) Updated:Thu, 22 Oct 2020 12:13 AM (IST)
जो दूसरों की खुशी चाहता है वह कभी स्वार्थी नहीं हो सकता
जो दूसरों की खुशी चाहता है वह कभी स्वार्थी नहीं हो सकता

प्रसन्नता दूसरों को प्रसन्न करने में और निजी स्वार्थ को छोड़कर दूसरों को आनंद देने में निहित है। दूसरों को सुख देना हमारे अपने सुख के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह सर्वाधिक संतुष्टिदायक अनुभव है। कुछ लोग केवल अपने परिवार के बारे में ही सोचते है, हम चार और नहीं कोई और। परंतु यही वो लोग होते है जो कभी सुखी नहीं होते। केवल अपने लिए जीना ही सभी दुखों का स्रोत है। दूसरों को आध्यात्मिक, मानसिक और भौतिक सेवा प्रदान करने से आप अपनी निजी आवश्यकताओं को पूरा होते पाएंगे। जब आप दूसरों की सेवा में अपने स्वयं को भुला देंगे तो आप पाएंगे कि आपका अपना सुख का प्याला बिना मांगे ही भर जाएगा ।

मनुष्य को यह समझने की आवश्यकता है कि उसकी अपनी बुद्धि ही उसके शरीर के अणुओं का नियंत्रण करती है। उसे मानसिक संकीर्णता के बंद कक्ष में नहीं जीना चाहिए। दूसरे लोगों के शक्तिप्रद विचारों और दृष्टिकोणों की स्वच्छ हवा में रहे। निरुत्साह, असंतोष और निराशा के विषैले विचारों को निकाल दें। जीवन शक्ति का पान करें और भौतिक रूप से एवं आध्यात्मिक रूप से विकसित मन वाले व्यक्तियों से मानसिक पोषण ग्रहण करें। अपनी एवं दूसरों के भीतर की सकारात्मक सोच का प्रचुर मात्रा में सेवन करे। आत्मविश्वास के पथ पर लंबा मानसिक भ्रमण करें। परख, आत्मनिरीक्षण और पहल शक्ति के उपकरणों के साथ अभ्यास करें तभी यह जीवन सफल होगा। आज समाज में लोग एक-दूसरे की परवाह नहीं करते और निरंतर अपनी स्वार्थ पूर्ति की चिता करते है। हमे परहित चितंन करना चाहिए। परहित चितक की चिंता स्वयं प्रभु करते है। जो जवानी में दूसरों की सेवा करता है, बुढ़ापे में उसकी सेवा समाज रूपी प्रभु करते है। जो स्वार्थवश अपनी ही फिक्र करते है, प्रभु भी उनकी चिता से मुक्त हो जाते है। परहित चितन और सेवा में असीम आनंद परोपकारी है। इसलिए संसार मे कुछ भी दुर्लभ नहीं है। अयं निज: परोवेति गणना लधुचेतसा। उदार चरितानां तू बसुधैव कुटुम्बकम यह अपना है और वह पराया, ऐसी गणना संकुचित विचार बाले लोग ही करते है, उदार चरित्र वालों के लिए तो संपूर्ण पृथ्वी अपना परिवार है अर्थात सेवामय भावना से व्यक्ति के विचारों मे व्यापकता आ जाती है। ऐसे लोगों के लिए अपना-पराया नहीं होता है अर्थात वे समदर्शी होते है। वृक्ष कबहुं नहीं फल भखे, नदीं न संचय नीर, परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर अर्थात वृक्ष अपना फल कभी नहीं खाता, नदी अपने पानी को खुद नहीं पीती अर्थात सज्जन पुरुष की जिदंगी परमार्थ अर्थात समाज सेवा को समर्पित होती है। वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि वह अपने अतिरिक्त किसी के विषय में सोचने को तैयार नहीं है । जीवन के संचालन हेतु अधिकाधिक धन के हड़पने और संजोने की प्रवृत्ति ने करोड़ों लोगों के मुंह से निवाला छीन लिया है। लोग जियो और जीने दो के सिद्धांत को छोड़कर स्वार्थ पूर्ति में लगे हुए है। अत: हमें ऐसी व्यवस्था का वरण करना चाहिए जिसमें सभी को जीने का हक हो, प्रत्येक व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य एवं शिक्षा का अधिकार मिले, जहां मानव द्वारा मानव का शोषण न हो, तभी एक आदर्श समाज का निर्माण होगा। लोगों में आपसी प्रेम और भाईचारा बढ़ेगा, समाज मे सुख, शांति, समृद्धि एवं खुशहाली होगी। पेड़-पौधे, जीव-जंतु, अमीर-गरीब सब आनंद के साथ जीवन यापन कर सकेंगे। अत: हमें स्वार्थ त्यागकर परोपकार करना चाहिए । गोस्वामी तुसलीदास जी ने भी लिखा है, परहित सरिस धर्म नहि भाई।

- अक्षय रॉय, प्राचार्य, केंद्रीय विद्यालय बंडामुंडा स्वार्थ के परे मिली खुशी का कोई मोल नहीं

एक व्यक्ति अपनी महंगी कार में बैठा था। अचानक उसने देखा कि एक छोटा गरीब लड़का बड़ी उत्सुक्ता से उसकी कार को निहार रहा रहा। व्यक्ति ने उस बच्चे को पास बुलाया और पूछा- तुम क्या देख रहे हो? बच्चे ने कहा-साहब आपकी कार बहुत सुंदर है। यह तो बहुत महंगी होगी न? व्यक्ति ने बड़े गर्व से कहा- हां यह कार बहुत महंगी है, लाखों की है। फिर बच्चे ने बहुत की मासूमियत से पूछा-इस कार को खरीदने के लिए आपने काफी मेहनत की होगी। उस व्यक्ति ने मुस्कराते हुए कहा, नहीं यह कार मेरे बड़े भाई ने उपहार में दी है, मेरे जन्म दिन पर। बच्चे ने आश्चर्य से कहा-वाह। आपके बड़े भाई बहुत अच्छे हैं। उन्होंने इतनी महंगी कार आपको दी है। बच्चा चुप रहा और कार को निहारता रहा। अमीर आदमी ने कहा- मुझे मालूम है कि तुम क्या सोच रहे हो, शायद यही कि काश, तुम्हारा भी कोई बड़ा भाई होता, जो तुम्हे भी इतनी महंगी कार उपहार में देता। उस गरीब बच्चे के चेहरे पर एक अनोखी चमक थी। उसने सहजता से कहा- नहीं साहब, मैं तो बस यह सोच रहा हूं कि मैं आपके बड़े भाई की तरह बनूंगा और एक दिन अपने भाई को भी ऐसी ही कार उपहार में भेंट करुंगा। धनी व्यक्ति को उस गरीब बच्चे के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता होने लगी। उस क्षण तो वह कुछ बोला नहीं। वह गरीब वहां से चला गया। धनी व्यक्ति अपनी हैसियत से सोचता रहा। उस गरीब बच्चे के चेहरे की चमक, खुशी उसे और बेचैन कर दिया। स्वयं के बारे में सोचने लगा। सब कुछ होने के बावजूद वह खुश नहीं है। दूसरे दिन वह गरीब बच्चा उसे दिखाई दिया। वह धनी व्यक्ति उसे फिर अपने पास बुलाया और उसके विषय में जानने के लिए उससे तरह तरह की बातें करता रहा। बातों-बातों में लड़के ने अपने छोटे भाई के बारे में बताया। उसका भाई अपाहिज है और चल नहीं सकता। धनी व्यक्ति जब उसे छोड़ने गया तो देखता है कि उस गरीब के छोटे से कच्चे घर के बाहर सु-स्वागत लिखा है जबकि धनी व्यक्ति के घर के गेट में लिखा है कुत्ते से सावधान। उस गरीब लड़के ने अपाहिज भाई के बारे में सोचा जबकि इस दुनिया में तो एक भाई ही अपने भाई का दुश्मन बन बैठा है। पैसे से वस्तुएं खरीदी जा सकती है पर रिश्ते नहीं बनाए जा सकते, खुशियां नहीं खरीदी जा सकती। उस धनी व्यक्ति के मन को गरीब बच्चों की बातें झकझोर कर रख दी। स्वयं के बारे में सोचने लगा कि उसकी दुनिया कैसी है। अंत में धनी व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जो व्यक्ति दूसरों की खुशी के बारे में सोचता है वह कभी स्वार्थी नहीं हो? सकता एवं वह स्वार्थ के परे है।

जसिता प्रभा किडो, पीजीटी हिदी, केंद्रीय विद्यालय, बंडामुंडा।

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