World Radio Day 2020 : झारखंड के झुमरीतिलैया से अब नहीं होती गीतों की फरमाइश....

World Radio Day 2020 रेडियो का कोई ऐसा शो नहीं होगा कोई ऐसा दिन नहीं होगा जिस पर झुमरीतिलैया से गीतों की फरमाइश नहीं आती हो।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 13 Feb 2020 08:46 AM (IST) Updated:Thu, 13 Feb 2020 03:57 PM (IST)
World Radio Day 2020 : झारखंड के झुमरीतिलैया से अब नहीं होती गीतों की फरमाइश....
World Radio Day 2020 : झारखंड के झुमरीतिलैया से अब नहीं होती गीतों की फरमाइश....

कोडरमा, अनूप कुमार। World Radio Day 2020 : ‘कोई हसीना जब रूठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती है....’। फिल्म शोले के इस गीत की फरमाइश की है झुमरीतिलैया से अमर, गुड्डूर्, रिंकी और कमल ने। रेडियो शिलांग, रेडियो नेपाल और विविध भारती पर प्रसारित होने वाले फरमाइशी गीतों को सुनकर बड़ी हुई पीढ़ी को झुमरीतिलैया जरूर याद होगा। रेडियो का कोई ऐसा शो नहीं होगा, कोई ऐसा दिन नहीं होगा जिस पर झुमरीतिलैया से गीतों की फरमाइश नहीं आती हो। अपने इस अनूठे शौक के कारण झारखंड का यह कस्बाई नगर पूरे देश में मशहूर हुआ।

आलम यह था कि प्रतियोगिता परीक्षाओं में भी यह पूछा जाने लगा कि देश में सबसे ज्यादा रेडियो पर गीतों की फरमाइश कहां से आती है? एक से एक रेडियो के शौकीन थे यहां। जिस गली से गुजरें गीतों पर कान लगाए लोग मिल जाते थे। लेकिन स्मार्ट फोन और केबल टीवी के जमाने में नई पीढ़ी के शहर में अब रेडियो पर नगमे कहीं नहीं गूंजते। भौगोलिक नक्शे पर भले यह शहर माइका खनन के लिए विश्वप्रसिद्ध है लेकिन असली पहचान इसे यहां के श्रोताओं ने ही दी।

रेडियो से झुमरीतिलैया शहर का चार दशक तक गहरा लगाव रहा। हाई फ्रिक्वेंसी का रेडियो एफएम यहां अब तक ठीक से नहीं पहुंच पाया है। कार में सफर के दौरान लोग एफएम रेडियो जरूर सुन पाते हैं, अन्यथा घरों, दफ्तरों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों और गांव की चौपाल से तो रेडियो पूरी तरह से गायब हो गया है। बता दें झुमरीतिलैया कोडरमा जिले का प्रमुख शहर है। अजीब यह कि यहां का रेलवे स्टेशन कोडरमा है और स्टेशन से बाहर निकलें तो शहर झुमरीतिलैया।

झुमरीतिलैया को चर्चित बनाने में यहां गीतों के दो दीवाने रामेश्वर प्रसाद वर्णवाल और गंगा प्रसाद मगधिया (दोनों दिवंगत) की अहम भूमिका रही। दोनों कई कार्यक्रमों में सम्मानित किए गए। स्व. रामेश्वर प्रसाद वर्णवाल के पुत्र चंदन वर्णवाल बताते हैं कि एक बार एक अंग्रेजी समाचार पत्र को दिए एक इंटरव्यू में प्रसिद्ध एनाउंसर अमीन सयानी ने उनके पिता रामेश्वर प्रसाद वर्णवाल के संबंध में यह टिप्पणी की थी, ‘हर कस्बा झुमरीतिलैया नहीं हो सकता और हर शख्स रामेश्वर प्रसाद वर्णवाल नहीं हो सकता।’ बकौल चंदन वर्णवाल, 1953 ई. के आस-पास रामेश्वर वर्णवाल ने रेडियो में फरमाइश भेजनी शुरू की थी। उनका यह शौक आदत में बदल गया। उसके बाद गंगा प्रसाद मगधिया ने भी रेडियो पर फरमाइश भेजना शुरू कर दिया। फिर तो इसमें कई लोग शामिल हुए। आलम यह था कि लोग टेलीग्राम से भी फरमाइशें भेजने लगे थे।

रेडियो का स्वर्णकाल

सभी विकासशील देशों, खासकर भारत में सातवें और आठवें दशक रेडियो का स्र्वणकाल कहा जा सकता है। 1983 में भारतीय क्रिकेट टीम की विश्व कप जीत को इस देश में देखा नहीं, सुना गया था। हालांकि 1981 के एशियाड के बाद दूरदर्शन का प्रचार-प्रसार बड़े स्तर पर हो रहा था, लेकिन 90 प्रतिशत लोगों के पास तब टीवी नहीं था

रेडियो के लिए लाइसेंस

आजादी के बाद भी भारत में कई सामान्य कामों के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। रेडियो के लिए ‘रेडिया एंड टेलीग्राफ एक्ट’ के तहत लाइसेंस बनवाना होता था। अधिकारी आप से कभी भी लाइसेंस दिखाने को कह सकते थे। आखिरकार सातवें दशक के अंत में लाइसेंस राज का खात्मा हुआ।

एएम और एफएम तकनीक

एमप्लिट्यूट मॉड्यूलेशन (एएम) तकनीक शुरुआती रेडियो तरंगों का हाईवे था, जिसे मीडियम वेब और शॉर्ट वेब में बांटा जा सकता था। इसी तकनीक के कारण ही लंदन में बैठकर बीबीसी के प्रस्तुतकर्ता भारत में कार्यक्रम प्रसारित करते थे। आठवें दशक के अंत में फ्रीक्वेंसी मॉड्यूलेशन तकनीक आई और आज का लोकप्रिय एमएफ रेडियो दुनिया को मिला, जो मोबाइल फोन में समा चुका है।

अब दुर्लभ हो गया है रेडियो

72 वर्षीय विनय कुमार लाल ने 1965 में शहर में रेडियो की दुकान खोली थी। आज बदलते जमाने के साथ इन्होंने अपनी दुकान को इलेक्ट्रिकल गुड्स के आइटम में तब्दील कर दिया है। पिछले करीब 17 वर्षों से इनकी दुकान में कोई रेडियो बिका ही नहीं। शहर के चटर्जी सेल्स के गोपाल चटर्जी बताते हैं शहर के स्टेशन रोड में उनके पिता की दुकान दिलीप रिपेरींग थी। वहां 1971 से फिलिप्स रेडियो बेचते थे। लोग शादी विवाह में रेडियो आवश्यक रूप से भेंट करते थे, लेकिन अब उनकी दुकान में कोई रेडियो नहीं है।

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