जिनके रास्ते न रोक सके नदी और जंगल, घोर अंधकार के बीच फैला रहे शिक्षा का उजियारा

राह में नदी भी थी और बाढ़ भी, लेकिन पुल नहीं। जंगल भी था और पहाड़ भी, लेकिन रास्ता नहीं। पर स्कूल की घंटी हर दिन अपने समय पर बजी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 04 Sep 2018 09:10 AM (IST) Updated:Tue, 04 Sep 2018 09:21 AM (IST)
जिनके रास्ते न रोक सके नदी और जंगल, घोर अंधकार के बीच फैला रहे शिक्षा का उजियारा
जिनके रास्ते न रोक सके नदी और जंगल, घोर अंधकार के बीच फैला रहे शिक्षा का उजियारा

नई दिल्‍ली [जेएनएन]। घोर अंधकार के बीच शिक्षा का उजियारा फैलाने में जुटे इन शिक्षकों का निजी संघर्ष जितना कठिन है, दूसरों के लिए उतना ही प्रेरक। एक-दो दिन नहीं, बल्कि दो दशक बीत गए। राह में नदी भी थी और बाढ़ भी, लेकिन पुल नहीं। जंगल भी था और पहाड़ भी, लेकिन रास्ता नहीं। पर स्कूल की घंटी हर दिन अपने समय पर बजी।

छत्तीसगढ़ और झारखंड के दुर्गम भौगोलिक क्षेत्रों में सेवारत दो शिक्षकों जगतराम निर्मलकर और रजनीकांत मंडल ने आदिवासी बच्चों का भविष्य गढ़ने में जीवन समर्पित कर दिया है। नदी, जंगल और पहाड़ की कठिनतम चुनौतियां भी इनके संकल्प को तोड़ नहीं सकी हैं।

आदर्श शिक्षक का कर्तव्य निभा रहे जगतराम गत 18 साल से हर रोज जिस चुनौती को पार कर स्कूल तक पहुंचते हैं, वह उनके प्रण का ही कमाल है। 40 फीट गहरे डूब क्षेत्र को खुद नाव चलाकर पार करते हैं। घने जंगलों और पहाड़ियों के बीच रहने वाले संरक्षित पहाड़ी कोरवा आदिवासी परिवारों के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने का दायित्व ही उन्हें हर बाधा को पार करने के लिए प्रेरित करता आया है।

छत्तीसगढ़ के कोरबा जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर ग्राम पंचायत सतरेंगा है। शिक्षक जगतराम निर्मलकर सतरेंगा के आश्रित ग्राम खोखराआमा के शासकीय प्राइमरी स्कूल में पदस्थ हैं। वहां पहुंचने के मार्ग तो कई हैं, पर हर मार्ग पर पहाड़ की कठिन चढ़ाई व पथरीले रास्ते राह रोके खड़े हैं। ऐसे में वे सतरेंगा स्थित अपने निवास से रोज पांच किलोमीटर का कठिन सफर तय करते हैं।

घर से दो घंटे पहले निकलते हैं और गांव से घाट तक पैदल आने के बाद वे बांगो बांध के डूब क्षेत्र को नाव से खुद चप्पू चलाकर पार करते हैं। इसके बाद घने जंगल के बीच उबड़-खाबड़ पहाड़ी पगडंडी पर पैदल चढ़ाई भी करते हैं। उनकी कर्मठता के लिए वर्ष 2016 में उन्हें मुख्यमंत्री शिक्षा अलंकरण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। जगतरात का कहना है कि आज भी पहाड़ी कोरवा समाज की मुख्यधारा से दूर हैं। जगतराम इन गांवों में सतत जनसंपर्क कर लोगों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करते हैं। उनके पढ़ाए 11 कोरवा युवक सरकारी नौकरी पर हैं।

रास्ते में जंगली हाथियों का खौफ

झारखंड के खूंटी जिले के तोरपा प्रखंड क्षेत्र स्थित तरगीया मध्य विद्यालय में पदस्थ शिक्षक रजनीकांत मंडल का कर्तव्य और दायित्व बोध भी सभी के लिए प्रेरक है। विगत 14 साल से रजनीकांत इस दुर्गम इलाके के आदिवासी बच्चों को पढ़ाने में लगे हुए हैं। जंगलों के बीच बना तरगीया राजकीय मध्य विद्यालय आदिवासी बहुल इलाके में पड़ता है। यहां कक्षा आठ तक के बच्चों को पढ़ाने के लिए रजनीकांत ही एक मात्र शिक्षक हैं। स्कूल पहुंचने के लिए उन्हें हर दिन उफनती नदी और घने जंगल को पार करना पड़ता है, लेकिन रजनीकांत कभी बाधाओं से हारते नहीं। और तो और बच्चे भूखे न रहें इसके लिए प्रखंड मुख्यालय से मध्याह्न भोजन की सामग्री और किताबें वगैरह खुद सिर पर रख, कमर तक पानी वाली नदी को पैदल पार कर विद्यालय पहुंचते हैं।

बरसात के दिनों में उन्हें काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है और नाव भी चलानी पड़ती है। स्कूल जाने के लिए कोई सड़क नहीं है, इसलिए बाइक को तपकारा से फटका बस्ती में ही छोडऩा पड़ता है। वहां से करीब एक किलोमीटर घने जंगल होते हुए नदी को पार कर स्कूल जाना पड़ता है। रास्ते में जंगली हाथियों का खौफ रहता है। हाल ही में एक महिला को हाथी ने कुचलकर मार डाला था। रजनीकांत कहते हैं, ये आदिवासी मुंडारी भाषा ही जानते हैं। मैंने भी मुंडारी सीख ली है। अब उनसे उनकी ही भाषा में बात करता हूं तो उन्हें समझाना कुछ आसान हो गया है।

[बिलासपुर से विकास पांडेय, खूंटी से सुनील सोनी की रिपोर्ट]  

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