किसानों के लिए बनाए गए कानून हैं आजादी की एक मरीचिका, जानें- कितने फायदेमंद

आवश्यक वस्तु अधिनियम का जन्म तो खाद्यान्न के अभाव के समय हुआ था। इसका मूल उद्देश्य उपभोक्ता को राहत देना था।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Mon, 27 Jul 2020 08:03 AM (IST) Updated:Mon, 27 Jul 2020 08:03 AM (IST)
किसानों के लिए बनाए गए कानून हैं आजादी की एक मरीचिका, जानें- कितने फायदेमंद
किसानों के लिए बनाए गए कानून हैं आजादी की एक मरीचिका, जानें- कितने फायदेमंद

सोमपाल शास्त्री। पहले अध्यादेश (संख्या 8) में आवश्यक जिंस कानून 1955 में संशोधन करके खाद्य पदार्थों, जिनमें खाद्यान्न, आलू, प्याज, तेल, तिलहन आदि सम्मिलित हैं, की आर्पूित और भंडारण पर सरकार द्वारा यदा-कदा लगाये जाने वाले प्रतिबंधों और सीमाओं को केवल आपातकालीन स्थिति में ही लागू करने की बात कही गयी है। अध्यादेश संख्या 10 में कृषि उत्पादों के मुक्त एवं प्रतिस्पर्धात्मक व्यापार, प्रसंस्करण तथा निर्यात को प्रोत्साहित करने तथा 11वें में संविदा खेती की अनुमति देकर कृषकों को बेहतर सुनिश्चित दाम दिलाने की आस बंधायी गयी है।

तीनों प्रस्तावित कानूनों का अवलोकन करने पर सहज ही यह तथ्य सामने आ जाता है कि न तो ये विचार नये हैं और न किसी भी दृष्टि से क्रांतिकारी। कृषि में सुधार और किसानों की आय को बढ़ाने से जुड़े ये सारे सुझाव वर्ष 1990 के जुलाई माह में तत्कालीन केंद्र सरकार को दी गयी कृषि नीति संबंधी भानुप्रताप सिंह समिति की रिपोर्ट में मुख्यता से सम्मिलित थे। उसके बाद 1994 में कृषि संबंधित स्थायी संसदीय समिति व बाद में दसवीं योजना के दस्तावेज सहित गत 30 वर्षों में ये विचार कई बार दोहराये गये। पिछली सरकारों ने कुछ नहीं किया यह सही है। परंतु वर्तमान सरकार और नीति आयोग ने भी छह साल बाद इन्हें बंद आलमारी से निकालकर मौलिकता और कृषक स्वतंत्रता के सेनानी-प्रहरी होने का जोरदार दावा पेश कर डाला है।

इन कानूनों का किसानों की दशा पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों का आकलन करें तो पाते हैं कि आवश्यक वस्तु अधिनियम का अधिकांश लाभ तो व्यापारियों को होगा। क्योंकि इस कानून का जन्म तो खाद्यान्न के अभाव के समय हुआ था और इसका मूल उद्देश्य उपभोक्ता को राहत देना था। किसान की समृद्धि का इससे कोई लेना-देना नहीं रहा। अत: उसे तो कोई लाभ होने वाला नहीं है। अनुचित मुनाफाखोरी और जमाखोरी से व्यापारियों को लाभ और उपभोक्ता के शोषण की संभावना अवश्य बढ़ जायेगी। हालांकि सरकार ने आपातकालीन स्थिति में नियमन का अधिकार अपने पास रखा है। परंतु राजकीय प्रशासनिक फाइलों- बैठकों वाली प्रणाली में निर्णय होते-होते यही कहावत अक्सर सिद्ध होती है कि बुढ़िया तब भागी, जब लुट ली। संविदा कृषि का प्रस्ताव एक  नया प्रयोग है। देश में इसकी व्यवस्था विकसित होने में कई वर्ष लगेंगे। यह भी देखना है कि कहीं यह भी सहकारिता के  विकास के प्रयोग की भांति अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप एवं भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ जाय। 

 

इसे सफल करने में निर्यात की बड़ी भूमिका हो सकती है। परंतु वहां अभी भी कई पाबंदियां मौजूद हैं। उन्हें हटाने से बासमती चावल के निर्यात की कथा की पुनरावृत्ति हो सकती है। परंतु अभी ऐसी रणनीति की पहल का सरकार की ओर से दूर तक दर्शन नहीं है। खाद्यान्नों के व्यापार को नियमित कर कृषि उपज मंडी व्यवस्था की स्थापना किसानों को व्यापारियों के चंगुल से बचाना था। परंतु कालांतर में वे ही व्यापारी सरकारी लाइसेंस लेकर आढ़ती बन गये। लाइसेंस कैसे और किनको मिलते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। अत: अभी भी मंडियों के अंदर और बाहर दोनों स्थान पर प्रभुत्व व्यवस्था के अनुभवी जानकार इन्हीं लोगों का रहने वाला है। 

किसान की वास्तविक समस्या तो आय का सतत प्रवाह न होने से विवशता की बिक्री और पिछले तीन दशक से सार्वदेशिक स्तर पर आवश्यकता से अधिक अन्न व अन्य उत्पाद पैदा करना है। इसीलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली का प्रादुर्भाव है। विडंबना तो यह है कि किसान को मिलने वाला न्यूनतम मूल्य ही कई दशकों से अधिकतम मूल्य बनकर रह गया है। आवश्यकता तो उस व्यवस्था को दुरुस्त कर सरकारी वचन निर्वाह करने की है। उसके बजाय बाजार और व्यापार खोलकर असली समस्या से ध्यान हटाना और राष्ट्र को कुछ समय तक  एक नयी उद्देश्यहीन बहस में उलझाकर समृद्धिपरक क्रांति का स्वप्न मृग मरीचिका ही सिद्ध होने वाला है। इससे किसानों का शायद ही भला होगा।

(लेखक पूर्व कृषि मंत्री हैं) 

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