Ayodhya Case: 17 साल लगे लिब्राहन आयोग को रिपोर्ट देने में, खर्च हुए थे 8 करोड़ रुपये

Ayodhya Verdict/Ayodhya Case लिब्राहन आयोग का कार्यकाल देश में गठित सबसे लंबे चलने वाले कुछ आयोगों में से एक रहा है। 17 वर्षों के दौरान इस पर आठ करोड़ रुपये का खर्च आया था।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Fri, 18 Oct 2019 11:05 AM (IST) Updated:Sat, 09 Nov 2019 10:04 AM (IST)
Ayodhya Case: 17 साल लगे लिब्राहन आयोग को रिपोर्ट देने में, खर्च हुए थे 8 करोड़ रुपये
Ayodhya Case: 17 साल लगे लिब्राहन आयोग को रिपोर्ट देने में, खर्च हुए थे 8 करोड़ रुपये

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। राम जन्‍मभूमि के मालिकाना हक पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी होने के बाद अब सभी को फैसले का इंतजार है। वर्षों पुराने इस मामले में फैसला आने के साथ ही एक पुराना विवाद भी खत्‍म हो जाएगा। अयोध्‍या में विवादित ढांचे को गिराए जाने के बाद 16 दिसंबर 1992 को केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से एक आयोग गठित किया गया जिसका नाम लिब्राहन आयोग था। यह आयोग आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्राहन की अध्‍यक्षता में गठित किया गया था। इसका कार्यकाल करीब 17 वर्ष का रहा। इस दौरान इसकी कई बार समय सीमा भी बढ़ाई गई। इस आयोग का मकसद विवादित ढांचा गिराए जाने और उसके बाद हुए दंगों की जांच करना था।  

कार्यकाल और खर्चा

इस आयोग के गठन के समय इसका कार्यकाल महज तीन माह का था, लेकिन इसकी समय सीमा को करीब 48 बार बढ़ाया गया। 30 जून 2009 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट तत्‍कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी थी। इस रिपोर्ट के कुछ हिस्‍सों के मीडिया में आने के बाद संसद में हंगामा भी हुआ था। आपको बता दें कि ये आयोग देश के उन गिने-चुने आयोगों में से एक रहा है जिनका कार्यकाल काफी लंबा रहा। इस एक सदस्‍यीय आयोग पर सरकार ने कुछ आठ करोड़ रुपये का खर्च किया था। 

आयोग के गठन का मकसद

विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद जहां उत्‍तर प्रदेश सरकार के ऊपर अंगुलियां उठने लगी थीं वहीं केंद्र सरकार भी इसको लेकर‍ विवादों में घिर गई थी। केंद्र को लेकर कहा जा रहा था कि वह विवादित ढांचे की रक्षा करने में विफल रही थी। इन विवादों को खत्‍म करने के मकसद से ही तत्‍कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने इसकी जांच के लिए लिब्राहन आयोग का गठन किया था। नरसिंहराव ने विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद उत्‍तर प्रदेश की कल्‍याण सिंह सरकार को बर्खास्‍त कर दिया था। अगस्‍‍‍त 2005 में इस के समक्ष अंतिम गवाह के तौर पर कल्‍याण सिंह की ही गवाही हुई थी। 

जांच का दायरा

आयोग को 6 दिसंबर 1992 के दिन हुई घटित सभी घटनाओं का सिलसिलेवार अध्‍‍‍ययन करना था। इसके अलावा उन बातोंं को भी उजागर करना था जिसके तहत विवादित ढांचा गिराया गया।  आयोग को अपनी जांच में उस समय की प्रदेश सरकार और प्रदेश के अधिकारियों और विभिन्‍न एजेंसियों की भूमिका पर भी प्रकाश डालना था।  इसके अलावा आयोग को इस पहलू की भी जांच करनी थी कि प्रदेश के हालात को देखते हुए तत्‍कालीन प्रदेश सरकार ने सुरक्षा के क्‍या उपाय किए थे, और कहां पर चूक हुई थी।  

आयोग के समक्ष पेश होने वाले गवाह

आयोग के कार्यकाल के दौरान के दौरान 399 दिनों की सुनवाई में इसके समक्ष कुल सौ लोगों की गवाही हुई थी। इनमें कल्‍याण सिंह के अलावा पीवी नरसिंहरात, लाल कृष्‍ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, मुलायम सिंह यादव, वीपी‍ सिंंह, कलराज मिश्र, ज्‍योति बसु, केएस सुदर्शन, एसबी चव्‍हाण, तत्कालीन डीएम आरएन श्रीवास्तव, एसएसपी डीबी राय समेत कई अन्‍य वरिष्‍ठ नौकरशाह और पुलिस अधिकारी शामिल थे। इसके अलावा इसके समक्ष बीबीसी के रिपोर्टर मार्क टली भी बतौर गवाह पेश हुए थे। 

इन्‍हें ठहराया था दोषी

लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 68 लोगों पर कार्रवाई की सिफारिश की थी। इसमें भाजपा के कई वरिष्‍ठ नेताओं के नाम शामिल थे। इस रिपोर्ट को नवंबर 2009 को तत्‍कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने संसद में पेश किया था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में तत्‍कालीन यूपी सरकार पर तीखी टिप्‍पणी करते हुए यहां तक कहा था कि वह पूरे घटनाक्रम के दौरान मूकदर्शक बने रहे। प्रदेश सरकार ने वहां पर खराब होती स्थिति को काबू में करने का कोई जत्‍न नहीं किया।

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