President Droupadi Murmu: आदिवासी अस्मिता की राजनीति का दौर

President Droupadi Murmu देश का वह समुदाय जो अब तक मुख्यधारा से दूर था उसकी सहभागिता अब प्रत्यक्ष तौर पर दिखेगी एवं कार्बन उत्सर्जन कम कर पर्यावरण की रक्षा के साथ देश आधुनिक विकास के बीच समन्वय भी कायम होगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 25 Jul 2022 01:22 PM (IST) Updated:Mon, 25 Jul 2022 01:22 PM (IST)
President Droupadi Murmu: आदिवासी अस्मिता की राजनीति का दौर
President Droupadi Murmu: द्रौपदी मुर्मू का रायरंगपुर से रायसीना का सफर

दिव्येंदु राय। द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद एक नई बहस ने अपना स्थान बना लिया है कि उनके राष्ट्रपति बनने से शोषित वंचित आदिवासी वनवासी समुदाय का कितना भला होगा। मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया तो विपक्ष के कुछ दलों ने इसे आदिवासी समुदाय के लिए प्रलोभन मात्र बताया था। उनका यह मानना था कि यह चयन केवल प्रतीकात्मक होगा। विपक्षी दलों के कुछ लोगों का यह भी कहना है कि वर्तमान समय में राष्ट्रपति मात्र रबर स्टांप का काम कर रहे हैं, जबकि देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद को लेकर यह कहा जाना उचित नहीं है। किसी व्यक्ति या पद पर टिप्पणी करने से पहले उस पद की गरिमा एवं उसके अधिकार क्षेत्र के बारे में जानना तब अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, जब मामला राष्ट्र एवं राष्ट्रीय सम्मान से जुड़ा हुआ हो।

वह वर्ग जो सदियों से अपने अधिकारों से वंचित रहा हो, उस वर्ग के व्यक्ति को जब मान सम्मान मिलता है तो समूचा वर्ग प्रफुल्लित होता है। राष्ट्रपति के रूप में जब देश का प्रथम नागरिक बनने का अवसर उस वंचित वर्ग के किसी सदस्य को मिलता है तो उस वर्ग के साथ-साथ अन्य सामाजिक वर्गो का मनोबल भी बढ़ता है। अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को लेकर बहुत सजग रहने वाला आदिवासी समुदाय जब अपनी पूरी कार्यक्षमता के साथ देश के मुख्यधारा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगेगा, तब जाकर ही ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का सोच धरातल पर सफल होता दिखेगा।

द्रौपदी मुर्मू से यह उम्मीद है कि वह राष्ट्रहित में वैसा ही कार्य करेंगी जिसके लिए उन्हें जाना जाता है। उनके त्याग एवं तपस्या की मिसाल यूं ही नहीं दी जाती, बल्कि उन्होंने समय आने पर इसे साबित भी किया है। उनके व्यक्तिगत संघर्ष के बारे में तो सबने पढ़ा, सुना है, लेकिन झारखंड का राज्यपाल रहते हुए उन्होंने कुछ ऐसे निर्णय लिए थे जो उनकी जनहितवादी सोच को परिलक्षित करने के लिए पर्याप्त हैं। झारखंड की राज्यपाल रहने के दरम्यान उन्होंने भाजपा के नेतृत्व में बनी रघुबर दास सरकार के छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी) को विधानसभा में पारित होने के बाद अपने पास रोककर रख लिया। फिर लगभग सात माह के बाद आदिवासी हितों की रक्षा के लिए पुनर्विचार करने को राज्य सरकार को वापस भेज दिया। उनका यह निर्णय उनकी मजबूत इच्छाशक्ति एवं वनवासी समाज का ख्याल रखने के तौर पर देखा जाता है। उल्लेखनीय है कि सीएनटी- एसपीटी संशोधन विधेयक द्वारा तत्कालीन राज्य सरकार कृषि के अलावा आदिवासियों की जमीन को व्यावसायिक उपयोग की अनुमति जमीन मालिक द्वारा देने का प्रविधान कर रही थी। ऐसे विधेयक को वापस कर कानून नहीं बनने देने के द्रौपदी मुर्मू के निर्णय की तब विपक्षी दलों ने भी सराहना की थी।

इसी प्रकार जब झारखंड की वर्तमान सरकार ने ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल (टीएसी) का गठन कर अनुच्छेद 44 के जरिए आदिवासी हितों की रक्षा के लिए राज्यपाल को प्राप्त शक्ति को कम करने की कोशिश की तो उसका विरोध भी द्रौपदी मुर्मू ने किया एवं राज्यपाल रमेश बैस को अवगत कराया जिसके बाद उन्होंने टीएसी गठन की तथा फाइल को राज्य सरकार को वापस कर दिया। ये कार्य द्रौपदी मुर्मू के जल, जंगल और जमीन से जुड़ाव के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ऐसे में जब वह भारत की प्रथम नागरिक बन गई हैं तो उनसे आमजन की उम्मीदें भी बढ़ी हुई हैं। 

[राजनीतिक विश्लेषक]

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