प्रेम के चूल्हे पर सिंकने लगी स्नेह की रोटी, समझ में आ गई एक परिवार की अहमियत

बड़े ने कंधे पर अपनेपन का हाथ रखा तो छोटे की आंख छलछला उठी। अलगाव का दर्द आंसू में बह गया। घर में दो नहीं एक चूल्हा जलने लगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 18 May 2020 09:54 AM (IST) Updated:Mon, 18 May 2020 02:46 PM (IST)
प्रेम के चूल्हे पर सिंकने लगी स्नेह की रोटी, समझ में आ गई एक परिवार की अहमियत
प्रेम के चूल्हे पर सिंकने लगी स्नेह की रोटी, समझ में आ गई एक परिवार की अहमियत

प्रशांत कुमार, कन्नौज। ‘पन्ना ने मुलिया की ओर संकेतपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा-तुम्हें केदार अलग न रहने देगा बहू... वृद्धा मुलिया की आंखों से आंसू निकल रहे थे। सास की बातों में आज सच्ची वेदना, सच्ची सांत्वना, सच्ची चिंता थी। मुलिया का मन कभी अपने देवर की ओर इतना सहज नहीं हुआ था। जिनसे उसे व्यंग्य और प्रतिकार का भय था, वे इतने दयालु, इतने शुभेच्छु हो गए थे। आज पहली बार उसे अपनी स्वार्थपरता पर लज्जा आई। पहली बार आत्मा ने इस अलग्योझे (बंटवारे) को धिक्कारा था।’

परिवार में छोटी-छोटी बातों से बंटवारे की दीवार खड़ी होना, कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र की अलगाव और मिलन की कहानी ‘अलग्योझा’ का यह दृश्य अपने को दोहरा रहा है। लॉकडाउन में काम छूटने के बाद घर लौटे अपने क्वारंटाइन हुए तो परिस्थितियों ने परिवारों का आइसोलेशन खत्म कर दिया। आंखों में उमड़ी प्रेम की अश्रुधारा द्वेष, दर्द सब बहा ले गई। ‘अलग्योझा’ टूट गया और प्रेम के चूल्हे पर स्नेह की रोटी फिर से सिंकने लगी।

बूढ़े मां-बाप के चेहरे पर दिख रही अलगाव की झुर्रियां परिवार एक होने की खिलखिलाहट में छुप गईं। अब टूटा-फूटा वही कच्चा मकान, जिसमें पले-बढ़े, शादी-ब्याह हुआ। जिसकी दयनीयता से आहत होकर पलायन कर गए थे, वही मकान अब सुखद आश्रयस्थली बन पड़ा है। वही दो बीघे जमीन, जो कुनबे के लिए कम पड़ती प्रतीत होती थी, अब पर्याप्त लग रही है। प्राथमिकताएं बदलीं तो मानो जीवन का दर्शन ही बदल गया। जीने को और क्या चाहिए। यही सोच रहे हैं अब सब मिलकर।

पांच चूल्हे थे, अब एक है... : उप्र के कन्नौज स्थित ठठिया के बहादुरापुर निवासी सूरज प्रसाद इसी वर्ष अपने पीछे 80 वर्षीय पत्नी लौंगश्री, पांच बेटे रामकृपाल, महिपाल, अनोखेलाल, साहब सिंह, नन्हू सिंह का भरा- पूरा परिवार और विरासत में पांच बीघा जमीन छोड़ गए थे। हां, एक दर्द लेकर गए, घर में चूल्हे बंटे थे। शादी के बाद उपजी परिस्थितियों में सभी ने अलग गृहस्थी बसा ली। रामकृपाल व महिपाल गांव में खेती-मजदूरी करने लगे।

अनोखेलाल और साहब सिंह पंजाब चले गए। नन्हू अपने परिवार और मां के साथ रहने लगे। 31 लोगों का कुनबा पांच जगह बंटा देख मां बेचैन थी, लेकिन बेबस भी। इस बीच लॉकडाउन ने रोजगार छीना तो बेटे घर लौट आए। जांच के बाद होम क्वारंटाइन की बारी आई तो सवाल था, देखभाल कौन करेगा। ऐसे में रामकृपाल ने बड़े भाई होने का फर्ज निभाया। उनका प्रेम देखकर सभी का दिल पसीजने लगा। सारे भाई एकजुट हो गए और साझी कमाई की हुंकार भरी। वर्षों से अलग महिलाओं को एक रहने का मतलब समझ में आया और सांझा चूल्हा का फैसला ले लिया। रसोई घर का जिम्मा रामकृपाल की पत्नी रामादेवी के पास है। बुजुर्ग मां और 10 बच्चों को छोड़कर बाकी सभी मजदूरी करते हैं। जो मिलता है, मिल-बांट कर खर्च किया जाता है। अब अपने-पराये का भेद नहीं रहा।

बड़े ने कंधे पर अपनेपन का हाथ रखा तो छलक उठीं आंखें : ठठिया निवासी राजू राठौर और मिथलेश भूमिहीन हैं। मजदूरी करते हैं। 15 साल पहले हुए बंटवारे में एक ही घर में दो चूल्हे जलने लगे। शादी के बाद राजू कमाने के लिए लातूर चला गया। पत्नी सुधा बेटों 15 वर्षीय राजा, 10 वर्षीय ऋतिक, आठ वर्षीय प्रांशु और बेटियों चार वर्षीय काजल और दो साल की माही संग यहीं रहीं। मिथलेश यहीं पर रेवड़ी बेचकर विधवा मां चंपा देवी और अपना परिवार पालने लगे। रोजगार छिनने पर राजू वापस आ गया लेकिन काम नहीं मिला। बड़े ने कंधे पर अपनेपन का हाथ रखा तो छोटे की आंख छलछला उठी। अलगाव का दर्द आंसू में बह गया। घर में दो नहीं, एक चूल्हा जलने लगा।

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