रबर स्‍टैंप नहीं रहे राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी

राष्‍ट्रपति प्रणब मखर्जी अब रबर स्‍टैंप नहीं रहे हैं। वे सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इसकी बानगी उनके लगातार हो रहे विदेश दौरों में साफ देखी जा रही है, जिसमें उन्‍होंने कई करार किए हैं। पांच महीनों के एनडीए शासन के कार्यकाल में वह शनिवार को ही

By Kamal VermaEdited By: Publish:Tue, 11 Nov 2014 05:26 PM (IST) Updated:Tue, 11 Nov 2014 05:28 PM (IST)
रबर स्‍टैंप नहीं रहे राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी

नई दिल्ली। राष्ट्रपति प्रणब मखर्जी अब रबर स्टैंप नहीं रहे हैं। वे सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इसकी बानगी उनके लगातार हो रहे विदेश दौरों में साफ देखी जा रही है, जिसमें उन्होंने कई करार किए हैं। पांच महीनों के एनडीए शासन के कार्यकाल में वह शनिवार को ही अपने चौथे विदेशी दौरे से लौटे हैं। जबकि पूर्ववर्ती सप्रंग सरकार में अपने 22 महीनों के कार्यकाल के दौरान उन्होंने महज इतनी ही विदेश यात्राएं की थीं।

सूत्रों के अनुसार, मुखर्जी को विदेश यात्राओं के लिए पैकिंग करना पसंद नहीं है। यह बात उन्होंने जुलाई 2012 में राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करने के बाद अपने कुछ विश्वासपात्रों को बताई थी। मई 2014 में केंद्र में सरकार बदलने के साथ ही लगता है राष्ट्रपति की इस आदत में भी बदलाव हो गया।

ऐसा नहीं है कि मनमोहन सिंह के शासन के समय कम मौकों के कारण अब राष्ट्रपति की जल्दी-जल्दी विदेश यात्राएं हो रही हैं। मुखर्जी के विदेशी दौरों से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि नए प्रधानमंत्री के निजी अनुरोध और विचारपूर्ण राजनायिक कार्य ने राष्ट्रपति को विदेशी यात्राओं के लिए राजी किया। अधिकारियों ने बताया कि नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति को सिर्फ औपचारिक कार्यक्रमों में ही नहीं बल्कि महत्वपूर्ण राजनायिक कार्यों के लिए उसकी सेवाओं की जरूरत के बारे में राजी किया।

राजनायिक ने बताया कि जब विदेश दौरों की बात आती है तो अब राष्ट्रपति मुखर्जी बिल्कुल अलग व्यक्ित बन गए हैं। कुछ महीनों पहले तक विदेश मंत्रालय विदेशी दौरों के लिए राष्ट्रपति कार्यालय में संपर्क करने में अनिच्छुक रहता था क्योंकि राष्ट्रपति की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। मगर, अब ऐसा नहीं है।

राष्ट्रपति की भूटान यात्रा पिछले दो दशकों में भरतीय राष्ट्रपति के द्वारा की गई पहली द्विपक्षीय यात्रा थी। इस यात्रा का उद्देश्य भूटान के साथ भारत की सामरिक प्रधानता को फिर से स्थापित करना था। यह यात्रा ऐसे समय में की गई, जब चीन भूटान के साथ सीमा समझौता करने की कोशिश कर रहा है। केंद्र सरकार को डर है कि इससे भारत के पूर्वोत्तर के लिए सुरक्षा खतरा पैदा हो सकता है।

अक्टूबर में मुखर्जी नॉर्वे और फिनलैंड की यात्रा पर गए थे। फिनलैंड में आर्कटिक सर्कल में जाने वाले मुखर्जी पहले भारतीय राष्ट्रपति हैं। भारत सरकार इस सर्कल के माध्यम से ही अपने संसाधनों और व्यापार को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। भारत पिछले साल आर्कटिक काउंसिल का स्थाई पर्यवेक्षक बना है।

इससे पहले वह वियतनाम के अहम दौरे पर गए थे। यात्रा के दौरान दोनों देश इस सिद्धांत पर सहमत हुए कि भारत वियतनाम के बाहरी तट पर दो अतिरिक्त तेल और गैस ब्लॉक में खनन करेगा। यह दौरा ऐसे समय में किया गया, जब हनोई के साथ नई दिल्ली के संबंधों को लेकर चीन ने सावधान किया था।

राष्ट्रपति की वियतनाम यात्रा के पहले मुखर्जी के सचिव वेणु राजमणि ने अगस्त में कहा था- मुझे लगता है कि राष्ट्रपति ने विदेश की बजाय देश में ही अपनी यात्राओं को लेकर प्राथमिकता देने की इच्छा जाहिर की है। मगर, जब भी देश्ा की जरूरत होती है कि वह विदेश यात्रा करें, तो वह निश्िचत रूप से अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए तैयार रहते हैं।

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