जम्‍मू कश्‍मीर से 370 के खात्‍मे के बाद कनिहामा के लोगों को जगी है नई उम्‍मीद

कानी शॉल के बारे में बेहद कम लोग जानते हैं। जम्‍मू कश्‍मीर से अनुच्‍छेद 370 खत्‍म होने के बाद यहां के लोगों को इस अनूठी हस्‍तकला को बचाने को लेकर एक नई उम्‍मीद जगी है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Mon, 20 Jan 2020 02:02 PM (IST) Updated:Mon, 20 Jan 2020 05:36 PM (IST)
जम्‍मू कश्‍मीर से 370 के खात्‍मे के बाद कनिहामा के लोगों को जगी है नई उम्‍मीद
जम्‍मू कश्‍मीर से 370 के खात्‍मे के बाद कनिहामा के लोगों को जगी है नई उम्‍मीद

श्रीनगर [रजिया नूर]। श्रीनगर से करीब 16 किलोमीटर दूर है बडगाम जिले का गांव कनिहामा। सुर्खियों से परे इस गांव के कारीगर अपने हुनर से कश्मीर की अनूठी हस्तकला को न केवल आगे बढ़ा रहे हैं वरन दुनियाभर में नई पहचान देने की मशक्कत में जुटे है। कश्मीरी कालीन और पश्मीना की चकाचौंध के आगे इनकी कानी शॉल गुमनामी में कहीं खो गई पर न इनका विश्वास डगमगाया और न इन्होंने अपने हुनर से किनारा किया। अब 370 के खात्मे के बाद अब इस गांव में भी उम्मीद की रोशनी जगी है कि इन्हें भी विकास के साथ कदमताल करने का भरपूर अवसर मिलेगा।

लोगों को बेहद कम जानकारी 

कानी शॉल के बारे में काफी कम लोग ही जानते हैं। इसकी गुणवता पश्मीना शॉल से भी कई गुना अधिक है। एक कानी शॉल की कीमत 30 हजार से चार लाख रुपये तक है। चीरू भेड़ की ऊन से बनने वाली शॉल की बारीक कढ़ाई और डिजाइन गढ़ने में एक कारीगर को लगभग एक से डेढ़ साल लग जाता है। यह शॉल वजन में हलकी होती है जबकि इसकी गर्माहट काफी अधिक होती है। बुनकरों का गांव कहा जाने वाले कानीहामा की बड़ी आबादी इसी पर ही निर्भर है। गांव में महिलाओं की संख्या अधिक है।

गुंड कारहामा

कानीहामा की पहचान भी कानी शॉल से ही है। इसका असली नाम गुंड कारहामा था, लेकिन कानी शॉल की बदौलत गुंड कारहामा का नाम कानीहामा पड़ गया। इस गांव में जेके स्टेट हैंडलूम का कारखाना है और इसके अलावा कुछ अन्य लोगों ने यहां हैंडलूम खोले हैं। इनके माध्यम से गांव के कारीगर इस हुनर को बढ़ाने में जुटे हैं।

कानी शॉल आम हस्तकलाओं से अलग है। यह शॉल कानी यानी विशेष प्रकार के पेड़ की पतली टहिनयों पर बुनी जाती है। कानी को पहले पैंसिल की शक्ल दी जाती है। इसके लिए अलग से कारीगर होते हैं। बाद में कानी हथकरघे पर चढ़ाए पशमीने के धागों में घुसाई जाती है और शॉल बुनने की प्रक्रिया शुरू की जाती है। यह शॉल दूसरे बुने जाने वाले शॉलों से अलग होता है। एक कानी शॉल को बुनने के लिए 25-30 कानियों की दरकार होती है। इनकी मदद से शॉल पर कारीगर विभिन्न रंगों के डिजाइन बनाते हैं। यह डिजाइन कानी शॉल बुनने वाला कारीगर बनाता है।

हथकरघे पर कानियों के माध्यम से बुना जाता है शॉल

कानी शॉल चूंकि हथकरघे पर कानियों के माध्यम से बुना जाता है। डिजाइन, आकार तथा शाल की लंबाई, चौड़ाई के हिसाब से कारीगर को एक कानीशॉल बुनने में औसतन 10 से 18 महीने लगते हैं। एक कारीगर प्रतिदन औसतन चंद इंच (एक से दो इंच) कानी शॉल ही बुन पाता है। डिजाइन व शॉल के साइज के हिसाब से इसका रेट तय होता है। भारी कीमत के चलते यह शॉल गरीबों की पहुंच से दूर है।

मिला जीआइ का दर्जा

कानी शाल के बिलकुल मिलते-जुलते शॉल मार्केट में है। खरीदारों के लिए यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा शॉल असली है और कौन सा नकली। नकली शॉल 4000 से 6000 रुपये तक बेचे जाते थे। सरकार ने यह दिक्कत दूर करने के लिए कानी शॉल को ज्योग्राफिकल ऑडेंटिफकेशन (जीआइ) का दर्जा दे दिया है। इस ट्रेड मार्क से असली कानी शॉल की पहचान करना आसान हो गई है।

हथकरघा गांव बनेगा कानीहामा

कानीहामा हथकरघा गांव के तौर पर विकसित होगा। कारीगर शब्बीर अहमद डार को बेहतरीन कानी शॉल डिजाइन करने का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। कुछ बुजुर्ग कारीगर करीब 60-70 वषों से इस काम से जुड़े हैं और उनके बुने कानी शॉल विश्व प्रसिद्ध संग्रहों की जीनत बने हुए हैं। ऐसे कारीगर गुमनामी व गरीबी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। गांव को विकास की डग्गर पर ले जाने तथा कारीगरों की आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए प्रशासन ने हाल ही में कानिहामा को हथकरघा गांव को विकिसत करने का फैसला किया है। तैयारियां भी शुरू की है। इसके लिए प्रशासन ने गांव का सर्वे भी किया है। 

क्‍या कहते हैं ये 

कराई जाएंगी मौलिक सुविधाएं..

बडगाम के उपायुक्‍त तारिक हुसैन गनई का कहना है कि गांव को हैंडलूम विलेज के तौर पर विकसित करने के लिए रोडमैप तैयार किया जा रहा है। गांव के कारीगरों से संपर्क कर जरूरी जानकारी जुटाई जा रही है। कारीगरों के लिए कई स्कीमें उपलब्ध रखी जाएंगी, जिसमें उन्हें हथकरघे, सोलर लाइट्स व अन्य मौलिक सुविधाओं के साथ-साथ गांव में कारखाने और शोरूम स्थापित किए जाएंगे। कानी शॉल व अन्य हस्तकलाएं सीखने के इच्छुक युवाओं के लिए प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए जाएंगे।

उम्मीद है कि गांव की तकदीर बदलेगी..

वहीं इस पेशे से जुड़े बुनकर अब्दुल मजीद भट मानते हैं कि हमारा तैयार किया कानी शॉल लाखों में बिकता है। बदले में हमें चंद पैसे थमाए जाते हैं। हम चाहते हैं कि कानी शॉल की तरह इस काम से जुड़े हम कारीगरों को इज्जत मिले। उम्मीद है कि गांव की तकदीर बदलेगी। गांव में सरकार ऐसी कोई जगह बनाए, जहां हम अपने हुनर को प्रदर्शित कर सकें। कारीगर अपने तैयार किए माल को राज्य से बाहर किसी डीलर को बेचने पर मजबूर हो जाते हैं। कानी शॉल के कद्रदान केवल देश ही नहीं विदेश तक में हैं।

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