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जस्टिस केएस पुट्टास्वामी की याचिका पर फैसले से बदल गई निजता के अधिकार की परिभाषा

आधार के इस्‍तेमाल को लेकर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के एतिहासिक फैसले के पीछे वो याचिका थी जिसको रिटायर्ड जस्टिस पुट्टास्‍वामी ने दायर किया था।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 20 Jan 2020 01:18 PM (IST)Updated: Mon, 20 Jan 2020 01:18 PM (IST)
जस्टिस केएस पुट्टास्वामी की याचिका पर फैसले से बदल गई निजता के अधिकार की परिभाषा
जस्टिस केएस पुट्टास्वामी की याचिका पर फैसले से बदल गई निजता के अधिकार की परिभाषा

नई दिल्‍ली [जेएनएन]। अनुच्छेद 21 में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार है और न्यायपालिका ने पहले भी कई निर्णयों के माध्यम से इसके दायरे का विस्तार करते हुए इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, त्वरित न्याय, बेहतर पर्यावरण आदि को जोड़ा है। 2017 में निजता के अधिकार ने इसे विस्तार दिया। अब जब निजता भी मौलिक अधिकार का हिस्सा बन गई है तो कोई नागरिक अपनी निजता के हनन की स्थिति में याचिका दायर कर न्याय की मांग कर सकता है। दरअसल, संविधान का भाग 3 जो कुछ अधिकारों को मौलिक मानता है, इसमें निजता के अधिकार का उल्लेख नहीं था। निजता का अधिकार, समानता का अधिकार है या फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का? ऐसे बुनियादी विषयों का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया।

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सोशल मीडिया से लेकर आधार तक, कई बातों को लेकर निजता का सवाल लगातार उठा। 24 अगस्त 2017 को जस्टिस केएस पुट्टास्वामी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का जो निर्णय आया वह 21वीं सदी में भारतीय नागरिकों के अधिकारों के मामले में अहम साबित हुआ। इस निर्णय ने न सिर्फ पुराने कुछ निर्णयों को पलट दिया बल्कि नागरिक-राजनीतिक अधिकारों को लेकर एक प्रगतिशील और सार्थक व्याख्या की राह भी खोल दी। इस निर्णय में निजता को सिर्फ संविधान के दायरे में नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों और व्यापक सिद्धांतों के दायरे में देखा गया है। सुप्रीम कोर्ट ने आधार पर जो निर्णय दिया, उसने आमजन के लिए कुछ अहम बातों पर आधार की अनिवार्य निर्भरता को समाप्त कर दिया।

इस मामले में पहले याचिकाकर्ता रहे 93 साल के जस्टिस केएस पुट्टास्वामी कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व जज और आंध्र प्रदेश के पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य रहे हैं। आधार के साथ-साथ निजता के अधिकार मामले के भी वह पहले याचिकाकर्ता हैं। निजता के अधिकार मामले में शीर्ष अदालत ने निजता को मौलिक अधिकार माना।

दरअसल, तकनीक के विकास के परिप्रेक्ष्य में इस निर्णय के जरिए निजता की व्याख्या अंतरराष्ट्रीय स्तर के कानूनों के साथ की गई है। आज तकनीकी सरकार को नागरिकों के बारे में हर तरह की सूचनाएं जमा करने की सुविधा दे रही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का निर्णय लोकतंत्र में असहमति का सम्मान करने वाला सिद्ध हुआ। इस निर्णय को सिर्फ डेटा सुरक्षा और सरकारी निगरानी से जोड़कर देखना गलत होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने यह मानकर कि निजता के तहत न सिर्फ सूचनाएं आती हैं बल्कि अपने खुद के शरीर से संबंधित निर्णय लेने की आजादी भी आती है, लोगों को एक मजबूत औजार थमा दिया, जिसका इस्तेमाल लोग निजता हनन के खिलाफ कर सकते हैं। खास तौर पर उन मामलों पर इसका असर पड़ेगा जहां लोगों को स्वतंत्र तौर पर निर्णय लेने से रोका जाता है और पितृसत्तामक सरकार उन पर अपना निर्णय थोपती है। इस निर्णय की सबसे अहम बात यह है कि इसमें यह नहीं माना गया है कि भारत के नागरिक सरकार के अधीन हैं बल्कि माना गया है कि लोगों को अपने हिसाब से जीने का अधिकार है।

गौरतलब है कि देश में 100 करोड़ से अधिक स्मार्टफोन और 50 करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं। कुछ समय पहले सरकार ने एक आदेश जारी किया, जिसमें 10 सरकारी खुफिया एजेंसियों को किसी के भी कंप्यूटर डेटा पर निगरानी रखने यानी उसे खंगालने का अधिकार दिया गया। सरकार का कहना है कि 2009 के कानून में इसका पहले से ही प्रावधान है। अधिनियम की धारा 69 (1) के तहत अगर एजेंसियों को ऐसा लागता है कि कोई व्यक्ति या संस्था देशविरोधी गतिविधियों में शामिल हैं तो वे उनके कंप्यूटरों में मौज़ूद डेटा को खंगाल सकती हैं और उन पर कार्रवाई कर सकती हैं।

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