जर्जर हो चुकी व्यवस्था और हादसों की शक्ल लेती भगदड़

देश में लगभग 8500 रेलवे स्टेशन हैं। रेलवे सुरक्षा नियमावली के अनुसार इनमें से 75 प्रतिशत स्टेशनों पर पैदल पुल बनाए जाने के लिए मानक तय कर दिए गए हैं

By Digpal SinghEdited By: Publish:Tue, 03 Oct 2017 09:24 AM (IST) Updated:Tue, 03 Oct 2017 10:28 AM (IST)
जर्जर हो चुकी व्यवस्था और हादसों की शक्ल लेती भगदड़
जर्जर हो चुकी व्यवस्था और हादसों की शक्ल लेती भगदड़

प्रमोद भार्गव

बीते दिनों देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन के पैदल पुल पर मची भगदड़ में 22 यात्रियों की मौत हो गई और 30 घायल हो गए। हादसे के वक्त 103 साल पुराने संकरे पुल पर हजारों यात्री मौजूद थे। मुंबई में बारिश होने और एक साथ चार सवारी गाड़ियों के आ जाने की बजह से बड़ी संख्या में यात्री पुल पर ही अटक गए थे। इसी दौरान पुल टूटने व करंट लगने की अफवाह फैली और लोग एक-दूसरे को रौंदते हुए निकलने की कोशिश करने लगे। देखते-देखते एक छोटी सी अफवाह ने बड़े हादसे की शक्ल ले ली। जिस पुल पर भगदड़ मची वह एलफिंस्टन रोड और परेल स्टेशन को जोड़ता है। इन इलाकों में बड़ी संख्या में कॉरपोरेट व मीडिया संस्थानों के दफ्तर हैं, इसलिए हर एक मिनट में 300 व रोजाना लाखों यात्री इस पुल से गुजरते हैं।

रेल पुल पर हुई यह दुर्घटना साफ तौर से प्रशासनिक व्यवस्था में गहरे पैठी लापरवाही और कुप्रबंधन का नतीजा है। रेलवे में बड़े-बड़े सुधार के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन नतीजे ढाक के तीन पात ही हैं। दरअसल केंद्र सरकार ने रेलों की रफ्तार बढ़ाने, बुलेट, मेट्रो एवं टेल्गो ट्रेन लाने के साथ रेलवे में बड़े पैमाने पर सुधार, तकनीकीकरण और सुरक्षा के दावे तो बहुत किए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि न तो रेल दुर्घटनाएं टल रही हैं और न ही कोई खास बुनियादी सुधार नजर आ रहे हैं। यहां तक कि गुणवत्तापूर्ण भोजन भी यात्रियों को उपलब्ध कराना मुश्किल हो रहा है।

देश में करीब 8500 रेलवे स्टेशन हैं। रेलवे सुरक्षा नियमावली के हिसाब से 75 फीसद स्टेशनों पर पैदल पुल बनाए जाने के लिए मानक तय कर दिए गए हैं, जिसमें यात्रियों की क्षमता, ट्रैक से गुजरने वाली रेलों के कारण होने वाले कंपन तक शामिल हैं, लेकिन पुराने हो चुके पुल अब भी मानक के हिसाब से विकसित नहीं किए जा सके हैं। यह सीधे-सीधे आपराधिक अनदेखी है, जिसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए।

रेलवे स्टेशनों पर हुए हादसों की यह कोई पहली घटना नहीं है। बावजूद हम इतिहास से सबक नहीं लेते हैं। स्टेशनों पर सुरक्षा के लिहाज से कई मर्तबा दिशा-निर्देश तय किए गए हैं, लेकिन न इन पर पैनी नजर रखी जाती है और न ही अधिकारी इसकी समीक्षा करते हैं। सीसीटीवी कैमरों से जमा हो रही भीड़ पर नजर रखने के निर्देश हैं। यदि भीड़ ज्यादा हो जाए तो उसे रोकने की कोशिश होनी चाहिए, लेकिन अकसर ऐसा किया नहीं जाता है। नियमों के मुताबिक प्लेटफॉर्म पर यात्री के साथ एक ही व्यक्ति को साथ में जाने की अनुमति है, पर एक यात्री को कई-कई व्यक्ति छोड़ने जाते हैं। देश के किसी भी भीड़-भाड़ वाले स्टेशन पर इन नियमों का पालन नहीं किया जाता है। हमारा जब कोई नेता रेल से आता या जाता है, तब उसके प्रशंसकों का रेला ही स्टेशन पर आ धमकता है। इसी तरह देश में धर्म-लाभ कमाने की प्रकृति से जुड़े हादसे भी लगातार देखने में आ रहे हैं।

इन दुर्घटनाओं ने इस सच्चाई से पर्दा उठाया है कि रेलवे का बुनियादी ढांचा एक तो चरमरा रहा है, दूसरे वह बढ़ते यात्रियों के कारण कम भी पड़ रहा है। एलफिंस्टन स्टेशन के जिस पैदल पुल पर यह हादसा हुआ, वह अंग्रेजों के जमाने में 1911 में बना था। आजादी के समय मुंबई की आबादी लगभग 40 लाख थी, जो आज सवा दो करोड़ के करीब है। यदि मामूली सोच से ही समझा जाए तो हम अनुभव कर सकते हैं कि जनसंख्या वृद्धि और स्टेशनों पर रेलों व यात्रियों की आवाजाही बढ़ जाने के कारण इस तरह के ढांचे हर स्टेशन पर छोटा पड़ने लगे हैं। अब सवाल उठता है कि जब दुरावस्था की इस स्थिति को आम आदमी समझ सकता है तो वे अधिकारी क्यों नहीं समझ पा रहे हैं जो उच्च शिक्षित होने का दंभ भरते हैं।

भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में प्रचार-प्रसार के कारण उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही है। जिसके चलते दर्शनलाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाले भगदड़ों का सिलसिला जारी है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें, किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अकसर देखने में नहीं आती? इसलिए भीड़-भाड़ वाली जगहों पर व्यवस्था की जिम्मेदारी जिन आयोजकों, संबंधित विभागों और अधिकारियों पर होती है, उन्हें भी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।

हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रूप लेते जा रहे हैं। कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं, किंतु इस अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े हाते हैं। बावजूद लपरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरूरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते?

क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोड़ों लोगों की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती है। यह भीड़ रेलों और बसों से ही यात्रा करती है। बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने खासतौर से यूरोपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे। साथ ही हादसे के वक्त आम नागरिकों को भी इस दृष्टि से जागरुक किया जाना जरूरी है कि वे यह ख्याल रखें कि जब कहीं अचानक भगदड़ की स्थिति निर्मित हो तो धीरज खोने के बजाय विवेक से काम लें और उचित-अनुचित का ध्यान रखें। यदि आम लोगों में यह सोच विकसित कर दी जाती है तो इस तरह की दुर्घटनाओं में कम से कम जनहानि होगी।

(लेखक आजतक न्यूज चैनल से जुड़े हैं)

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