हमेशा की ही तरह अब भी भारत का करीबी सहयोगी है रूस
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूस दौरे का महत्व इसलिए भी अत्यधिक है, क्योंकि अमेरिका के रणनीतिक सहयोगी के रूप में भारत की बनती छवि से नाराज तथा असहज रूस की सोच में बदलाव आएगा।
अरविंद जयतिलक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रूस यात्र के दौरान दर्जन भर नए करारों पर हस्ताक्षर दोनों देशों के आपसी कारोबार और निवेश को नई ऊंचाई देने के साथ ही भू-रणनीतिक, सामरिक और आर्थिक साङोदारी को नया आयाम देने वाला साबित होगा। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का यह कहना कि पाकिस्तान के साथ उनके देश का सैन्य सहयोग बेहद मामूली है और भारत ही स्वाभाविक दोस्त है, दुनिया को बताने के लिए पर्याप्त है कि भारत और रूस एक-दूसरे के कितने निकट हैं। यह भारत के लिए बड़ी उपलब्धि है कि दोनों देशों के बीच कुडनकुलम में परमाणु ऊर्जा प्लांट में पांचवां और छठवां रिएक्टर लगाने पर करार हो गया है जिससे एक हजार मेगावाट अतिरिक्त बिजली का उत्पादन संभव होगा। रूस ने यह भी ऐलान किया है कि वह भारत को अत्याधुनिक हथियारों की आपूर्ति करता रहेगा तथा साथ ही उसकी सेना भारतीय सेना के साथ सैन्य अभ्यास करती रहेगी।
रूस ने भारत को हाई स्पीड टेन चलाने और जलमार्ग एवं कृषि क्षेत्र में सहयोग का भी वादा किया है। यह समझौता दोनों देशों के सामरिक व आर्थिक गतिविधियों को उड़ान भरने में संजीवनी देगा और साथ ही सैन्य संबंधों में उपजे संशय और खटास को खत्म करेगा। दोनों देशों ने आतंकवाद के विरुद्ध मिलकर लड़ने की प्रतिबद्धता जताई है। याद होगा नवंबर 2001 में भी दोनों देशों ने मास्को घोषणा पत्र में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने का संकल्प व्यक्त किया था। इसके अलावा रूस ‘संयुक्त राष्ट्र संघ में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद एवं व्यापक कन्वेंशन’ पर भारत के मसौदे का समर्थन किया है।
प्रधानमंत्री मोदी की रूस यात्र का महत्व इसलिए भी अत्यधिक है कि अमेरिका के रणनीतिक सहयोगी के रूप में भारत की बनती छवि से नाराज और असहज रूस की धारणा में बदलाव आएगा। वह अब चीन एवं पाकिस्तान के प्रति आकर्षण प्रकट करने से बचेगा। चूंकि रूस सीरिया में उलझने के कारण आर्थिक मोर्चे पर भयावह स्थिति का सामना कर रहा है, ऐसे में वह भारत के साथ अपने द्विपक्षीय कारोबार को गतिहीन बनाने की भूल नहीं करेगा। उसकी पूरी कोशिश होगी कि यूरोप और पश्चिम एशिया में उसके सिकुड़ते द्विपक्षीय कारोबार और निवेश की भरपाई भारत से हो।
रूस के समक्ष नियंत्रित अर्थव्यवस्था को बाजार अर्थव्यवस्था में बदलने की चुनौती के साथ वैश्विक और सामरिक मोर्चे पर नैतिक समर्थन की भी दरकार है। रूस यूक्रेन और सीरिया मसले पर अमेरिका और यूरोपीय देशों के निशाने पर है। ऐसे में वह भारत के संदर्भ में अपनी और व्यापार नीति को पुनर्परिभाषित करने से बचेगा। गौर करें तो दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक संबंध हैं जो कभी भी बदलते राजनीतिक कारकों से निर्धारित नहीं हुए। संबंधों के अतीत में जाएं तो पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सात सितंबर, 1946 के प्रथम भाषण में स्पष्ट कर दिया था कि भारत एशिया के पड़ोसी राष्ट्र सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ संबंधों का इच्छुक रहेगा।
1954 में जब अमेरिका ने एशिया को शीतयुद्ध में लपेटने और सोवियत संघ के प्रभाव को सीमित करने के लिए दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (सीएटो) और मध्य एशिया संधि संगठन (सेंटो) का गठन किया तो सोवियत संघ और भारत दोनों ने इसका विरोध किया, लेकिन भारत ने बड़ी सहजता से ब्रेजनेव के एशिया की सामूहिक सुरक्षा के उस प्रस्ताव को भी यह कहते हुए ठुकरा दिया कि वह किसी तीसरे देश के विरोध स्वरूप किसी भी सैन्य संगठन और संधि को स्वीकार नहीं करेगा।
बावजूद इसके दोनों देशों के बीच खटास नहीं पनपा। सोवियत संघ ने हिंद-चीन क्षेत्र में शांति, भारत-चीन के मध्य पंचशील सिद्धांत और एशिया व अफ्रीकी देशों के साथ भारत के बढ़ते संबंधों का समर्थन किया और करगिल मसले पर पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी भी दी। 1974 में जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका ने भारत को दी जाने वाली परमाणु ईंधन की खेप पर रोक लगा दी थी, लेकिन सोवियत संघ ने अमेरिका जैसी तल्खी नहीं दिखाई। भारत भी अंतरराष्ट्रीय व क्षेत्रीय मसलों पर रूस का समर्थन कर दोस्ती की कसौटी पर खरा रहा है।
1969 में सोवियत संघ के चीन के साथ सीमा विवाद के मसले पर वह सोवियत संघ के साथ खड़ा हुआ। क्रीमिया पर रूसी कब्जे का समर्थन किया और अब सीरिया में आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के खिलाफ रूसी कार्रवाई के पक्ष में है। हालांकि दोनों देशों के बीच कुछ मसलों मसलन कश्मीर और रुपया-रुबल को लेकर मतभेद भी उभरे, लेकिन दिसंबर 1955 में ख्रुश्चेव और बुलगानिन ने भारत की यात्र के दौरान कश्मीर की धरती से भारत के दृष्टिकोण का समर्थन कर दिया। रुपया और रुबल की कीमतों के विवाद को भी आपसी सहमति से निपटा लिया गया।
ख्रुश्चेव के पतन के उपरांत सोवियत संघ की में परिवर्तन आया और वह भारत व पाकिस्तान के मध्य समानता के आधार पर संबंध गढ़ने शुरू कर दिए, लेकिन नौ अगस्त, 1971 को भारत व सोवियत संघ के मध्य 20 वर्षीय मैत्री व सहयोग की संधि ने दोनों देशों की दूरियां कम कर दी। ब्रेजनेव के बाद मिखाइल गोर्बाचेव के समय भी दोनों देशों के रिश्ते मधुर बने रहे। 1986 में गोर्बाचेव ने भारत की यात्र की और भारत की विभिन्न परियोजनाओं को फलीभूत करने के लिए तकरीबन तीन हजार करोड़ रुपये का कर्ज देने की घोषण की।
भारत को सोवियत संघ से पारंपरिक रिश्ते बनाए रखने की चुनौती तब उभरी जब 27 दिसंबर, 1991 को 11 गणराज्यों द्वारा स्वतंत्र देशों का राष्ट्रकुल (सीआइएस) अस्तित्व में आया और मास्को में सोवियत संघ की जगह रूस का झंडा लहराने लगा। इस परिदृश्य में भारत के समक्ष रूस समेत बाल्टिक, काकेशियन, स्लाव और मध्य एशिया में पसरे गणराज्यों मसलन ईस्टोनिया, लातविया, लिथुवानिया, जॉर्जिया, अरमीनिया, अजरबैजान, माल्डेविया, यूक्रेन, बेलारूस, कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान और क्रिर्गिजस्तान गणराज्यों से मुधर संबंध बनाए रखना आसान नहीं था, लेकिन भारत इस कसौटी पर खरा उतरा।
1992 में रूस के विदेश राज्य सचिव गेनादी बुर्बलिस की भारत यात्र के दौरान दोनों देशों ने एकदूसरे को ‘अति विशिष्ट राष्ट्र’ (एमएफएन) का दर्जा दिया और विज्ञान एवं तकनीकी, पर्यावरण और संचार जैसे मसलों पर समझौते किए। गत वर्ष राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्र और प्रधानमंत्री मोदी की रूस यात्र के बाद अब दोनों देशों के संबंधों में निखार आएगा। जहां तक आने वाले दशकों में भारत व रूस संबंधों का सवाल है तो यह काफी कुछ दोनों देशों के आंतरिक राजनीतिक-आर्थिक स्वरूप में हो रहे बदलाव और वैश्विक घटनाक्रमों पर निर्भर करेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)