मैं न हिंदू न मुसलमान, दोस्ती है मेरा ईमान...पढ़ें- हाजी साहब की अद्भुत कहानी

मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश के रेती मुहल्ले में है हकीम साहब का दवाखाना, इसके अगल-बगल हैं मस्जिद है और मंदिर

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 05 Dec 2018 11:03 AM (IST) Updated:Wed, 05 Dec 2018 11:25 AM (IST)
मैं न हिंदू न मुसलमान, दोस्ती है मेरा ईमान...पढ़ें- हाजी साहब की अद्भुत कहानी
मैं न हिंदू न मुसलमान, दोस्ती है मेरा ईमान...पढ़ें- हाजी साहब की अद्भुत कहानी

मुरादाबाद [प्रांजुल श्रीवास्तव]।
लोग होते हैं जो हैरान मेरे जीने से...
लोग होते रहें हैरान मुझे जीने दो।
मैं र्न हिंदू न मुसलमान मुझे जीने दो...
दोस्ती है मेरा ईमान मुझे जीने दो।
कोई एहसां न करो मुझ पे तो एहसां होगा...
सिर्फ इतना करो एहसान मुझे जीने दो।।

नफरतों के इस दौर में जहां हिंदू और मुस्लिम के बीच का टकराव खून बनकर सड़क पर उतरा रहा है, घाव नासूर बन रिस रहे हैं, वहीं हकीम हाजी नसीम का दोनों मजहबों के लिए प्यार किसी मरहम से कम नहीं है। मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश के रेती मुहल्ले में हाजी नसीम इंसानियत का पैगाम लिए सालों से प्यार, अमन और चैन बांटने में लगे हुए हैं।

नसीम 80 साल के हैं और एक छोटा सा दवाखाना चलाते हैं। दवाखाने के एक ओर छोटी मस्जिद है तो दूसरी तरफ प्राचीन शिव मंदिर। दवाखाने से सटे हुए दोनों धार्मिक स्थलों के लिए हाजी साहब की श्रद्धा एक सी है। इसी अपनेपन को देखते हुए मुहल्ले के लोगों ने दोनों धार्मिक स्थलों की चाभी भी हकीम साहब को ही दे रखी है। 20 साल से मंदिर और मस्जिद के रखरखाव से लेकर धार्मिक आयोजनों में भी हकीम नसीम पूरी श्रद्धा के साथ जुटते हैं। मंदिर को खोलने से लेकर उसकी सुरक्षा तक के बंदोबस्त भी वे खुद ही तय करते हैं।

नसीम बताते हैं कि चाभी मेरे पास ही रहती है, यह सभी जानते हैं। इनकी देखरेख की जिम्मेदारी भी मेरी ही है। मुहल्ले में ही रहने वाले गोल्डी दीक्षित, सुधीर कुमार और हाजी मुहम्मद कैसर बताते हैं कि यह मंदिर काफी पुराना है और जर्जर हो चुका था। ऐसे में हाजी नसीम ने इस मंदिर के जीर्णोधार में भी काफी मदद करके इसे ठीक कराया।

मोहल्ले के इन लोगों का कहना है कि हाजी नसीम ही इस पूरे मोहल्ले के बड़े बुजुर्ग हैं और उनकी सीख के ही कारण हिंदू और मुसलमानों में इतनी सूझबूझ है कि अजान के समय हिंदू मंदिर में आरती का आयोजन नहीं करते, कुछ देर बाद या फिर पहले ही करते हैं। वहीं जब कभी भंडारा होता है तो हाजी साहब अपना दवाखाना भी बंद कर देते हैं, जिससे श्रद्धालुओं को कोई दिक्कत न हो। मंदिर में सालाना दो बार भंडारा लगता है। ऐसे में प्रसाद बनने के बाद हकीम हाजी नसीम मंदिर के पुजारी रमेश से अपने सामने ही भगवान को भोग चढ़वाते हैं, उसके बाद भंडारा शुरू किया जाता है।  

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