शहरों की ओर लगातार बढ़ रहा पलायन, ग्रामीण इलाकों का भी हो विकास

बेहतर जीवन जीने के भ्रम में गांवों से लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। ग्रामीण इलाकों का विकास करके देश की बसावट को संतुलित किया जाना चाहिए।

By Neel RajputEdited By: Publish:Sun, 08 Sep 2019 01:20 PM (IST) Updated:Sun, 08 Sep 2019 01:21 PM (IST)
शहरों की ओर लगातार बढ़ रहा पलायन, ग्रामीण इलाकों का भी हो विकास
शहरों की ओर लगातार बढ़ रहा पलायन, ग्रामीण इलाकों का भी हो विकास

नई दिल्ली, अनिल प्रकाश जोशी। पिछले दशकों में अपने देश और दुनिया में गांवों से शहरों की ओर तेजी से पलायन बढ़ा है। किसी भी शहर की एक निश्चित संख्या में आबादी को ही जीवन की हर दशाएं मुहैया कराने की क्षमता होती है। क्षमता से अधिक आबादी को वह न तो प्राकृतिक संसाधन मुहैया करा पाता है और न ही भौतिक संसाधन। बेहतर जीवन जीने के भ्रम में गांवों से लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। ग्रामीण इलाकों का विकास करके देश की बसावट को संतुलित किया जाना चाहिए।

शहरों में बढ़ती जनसंख्या

भारत में आज करीब 38 प्रतिशत लोग शहरों में बस चुके हैं और यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले समय में यह संख्या बढ़ती चली जाएगी। किसी भी शहर को इसके प्रति वर्ग किलोमीटर पर जनसंख्या के दबाव के अनुसार देखा जाता है उदाहरण के लिये आज गांवों में प्रति वर्ग किलोमीटर 125-400 की जनसंख्या है वहीं शहरों में यह संख्या 900 से लेकर 25000 के बीच में है जिनमें मुंबई व दिल्ली जैसे शहर आते हैं। कोई भी शहर क्षमता से अधिक जनसंख्या के दबाव को नहीं झेल सकता है।

रोजगार और सुविधाओं के अभाव में गांवों से हो रहा पलायन

शहरों में बढ़ती जनसंख्या का कारण यहां जीवन के बेहतर तौर-तरीके, यातायात व अन्य सुविधाओं का होना है। वहीं दूसरी तरफ गांव में इनका आभाव खासतौर से युवाओं को शहर की ओर ले जाता है। रोजगार भी एक बड़ा बहाना रहा है। जिसके अवसर हम गांवों में उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। बढ़ते शहरों में बिगड़ती सभ्यता के पीछे बड़ी भीड़ भी हो जाती है। और बिगड़ती-बदलती सभ्यता व्याधियों, अनियमितताओं और अपराधों को ही जन्म देती है।

रहने लायक शहरों की सूची में दिल्ली और मुंबई पायदान पर

प्रदूषण और पर्यावरण भी रहने लायक शहरों की सूची तैयार करने का आधार रहा है। अब आज मुंबई को देखें तो पिछले दो महीने से देश की आर्थिक राजधानी यदाकदा जलमग्न हो जा रही है। अनुचित व अनियोजित कंस्ट्रक्शन शहर में पारिस्थितिकी अनियमितताओं को जन्म देती है। उधर दिल्ली के भी हालात पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी बेहतर नहीं समझे जा सकते।

यहां का वायु प्रदूषण हो या फिर शीतलहर हो या फिर गर्मियों में प्रचंड तूफान हो या लू, 12 महीनों यह शहर किसी न किसी पर्यावरणीय संकट से घिरा रहता है। और इससे तमाम तरह की इंसानी दिक्कतें सामने आती हैं। बढ़ती आबादी पानी और प्राणवायु पर ज्यादा बड़े संकट खड़े करती है। यह प्रति व्यक्ति उपलब्धता घटा देती है। प्रकृति का सिद्धांत है कि ज्यादा जनसंख्या वायु-पानी में असंतुलन को पैदा करती है।

संतुलित परिस्थितियां पैदा करना भी जरूरी

पिछले सात दशकों में हमने प्रगति की ओर अवश्य ही बड़े-बडे कदम उठाये हैं। आज हम चांद पर पहुंच चुके हैं। तमाम भौतिक उपलब्धियों के बीच प्राकृतिक संसाधनों की अनदेखी बढ़ती गई है। जिसका नतीजा सभी लोगों को भुगतना पड़ता है। शहरों में सिर्फ बेहतर शिक्षा व संस्कृति को विकसित करने से ही काम नहीं चलने वाला। किसी भी बेहतर जीवन के लिए हवा पानी के अलावा संतुलित परिस्थितियां पैदा करना बहुत जरूरी होता है।

असंतुलन में जी रहे शहर

हमारी विकास की वर्तमान शैली से यह लक्ष्य नहीं हासिल किया जा सकता। इसका एक ही विकल्प है कि हम पलायन को रोकने की तैयारी में जुट जायें। गांव में वह सब सुविधाएं व रोजगार के अवसर पैदा करें जिनके अभाव में एक तरफ गांव तो खाली होते जा रहे हैं और दूसरी तरफ शहर बेहतर जीवन से दूर होते जा रहे हैं। आज देश में शहर अंसतुलन में जीते है। और ये संतुलन तभी संभव होगा जब इनकी क्षमताओं के अनुसार यहां की आबादी तय की जाये। समय पर निर्णय लेने पर ही हम इस संकट से मुक्त हो पाएंगे।

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